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आत्मज्ञान प्राप्त करने के पश्चात, नेगेटिव परिस्थिति में भी पॉज़िटिव देखने के लिए हमारी दृष्टि किस तरह से व्यापक होती है?

संयोग सुधारकर भेजो

दादाश्री: कैसी है आपकी माताजी की तबियत?

प्रश्नकर्ता: यों तो अच्छी है, लेकिन कल ज़रा बाथरूम में गिर गई थीं, बुढ़ापा है न?

दादाश्री: संयोगों का नियम ऐसा है, कि कमज़ोर संयोग आएँ तब दूसरे कमज़ोर संयोग दौड़ते हुए आते हैं और यदि एक सबल संयोग मिले तो दूसरे सबल संयोग साथ में दौड़ते हुए आते हैं। यह बुढ़ापा, वह कमज़ोर संयोग है इसलिए उन्हें दूसरे कमज़ोर संयोग मिलते हैं, ज़रा धक्का लगे तो भी गिर जाते हैं, हड्डियाँ टूट जाती हैं। कमज़ोर के पीछे कमज़ोर संयोग आते हैं। यह तो जैसे-तैसे हल लाना है! दुनिया के लोग कैसे होते हैं? जो भी कमज़ोर, दबा हुआ मिल जाए, उसे झिड़कते रहते हैं। भगवान ने कहा है कि, ‘अरे, तू जितने दूसरों के संयोग बिगाड़ रहा है, उतने तू तेरे खुद के ही संयोग बिगाड़ रहा है। तो तुझे ही वैसे संयोग मिलेंगे।’

संयोग तो फाइलें हैं और उनका समभाव से निकाल करना है। यह तो अनंत जन्मों से संयोगों का तिरस्कार किया है इसलिए अभी इस काल में लोगों को जहाँ-तहाँ तिरस्कार मिलता है, उसी तरह के संयोग मिलते हैं। संयोग तो व्यवस्थित के हिसाब के परमाणुओं से ही मिलते हैं। कड़वे लगें वैसे संयोगों को लोग धकेलते रहते हैं और उन्हें गालियाँ देते हैं। संयोग क्या कहते हैं कि, ‘हमें व्यवस्थित ने भेजा है। तू हमें गालियाँ दे रहा है लेकिन फिर तुझे व्यवस्थित पकड़ेगा’ और जब मीठा संयोग आता है, तब लोग ‘आओ भाई! आओ भाई!’ ऐसा करते हैं। यह कैसा है कि यदि तू संयोगों के साथ रहेगा तो संयोग तो विनाशी हैं, तो तू भी विनाशी बन जाएगा लेकिन अगर संयोगों से अलग ‘स्व’ में रहेगा तो तू अविनाशी ही रहेगा।

यह तो कैसा है कि, कड़वे संयोगों को मना करने पर भी वे आते हैं और मीठे संयोगों को ‘आओ, आओ’ कहें फिर भी वे चले जाते हैं! ऐसा कर-करके तो अनंत जन्म बिगाड़े हैं, कुध्यान किए हैं। मोक्ष चाहिए तो शुक्लध्यान में रहना और संसार चाहिए तो धर्मध्यान रखना कि किस तरह सबका भला करूँ। धर्मध्यान तो, कभी कोई व्यक्ति उल्टा बोले, तो खुद ऐसा मानता है कि मेरा कोई हिसाब बाकी होगा, इसलिए ऐसा कड़वा संयोग मिला लेकिन उसके बाद फिर उस कड़वे संयोग को मीठा करता है, संयोग सीधा करता है। कोई व्यक्ति लड़ता हुआ आए कि, ‘आपने मुझे पच्चीस रुपये कम दिए,’ तो उसे पच्चीस में पाँच और मिलाकर, देकर राज़ी करके किसी भी तरह उस संयोग को सुधारकर भेजना है। संयोग को रोशन करके भेजें तो अगले जन्म में सीधे संयोग मिलेंगे। जहाँ-जहाँ उलझनें पड़ी हैं वहाँ-वहाँ पर वह संयोग उलझनवाला आता है, वही बाधक होता है। इसलिए उल्टे संयोग को उल्टा मत देखना, लेकिन उन्हें सीधा और मीठा करके भेजना ताकि जिससे अगले जन्म में बगैर उलझन के संयोग मिलें।

इन लोगों ने कहा है कि, ‘आप शांताबहन, इनकी समधन, इनकी माँ।’ और वह सब आपने मान लिया और फिर वैसी ही बन गईं! ऐसा है कि इंसान जब गहरी सोच में पड़ा हो, तब खुद का नाम भी भूल जाता है। उसी तरह इन संयोगों से घिर गया और खुद को भूल गया, इसका नाम संसार! इसमें अज्ञानता का ही एग्रीमेन्ट और अज्ञानता की ही पुष्टि की!

वह कहता है कि, ‘इसका जमाई और इसका ससुर।’ अरे! तू जमाई कैसा? तो कहता है कि, ‘मैंने शादी की है न?’ यह तो मार खाकर भोगते हैं, वह शादी है। ऐसा है, यह शादी, वह तो एक जन्म का एग्रीमेन्ट है, लेकिन इसे तो हमेशा का मानकर बैठ गया है! और ऊपर से इनाम में एक जन्म में ही बेहद मार खाता है! यह तो, भगवान खुद का भान भूल गए, इसलिए संसार खड़ा हो गया!

‘ये संयोग अच्छे हैं और ये खराब हैं’ इसीसे संसार खड़ा है, लेकिन यदि ‘ये सारे संयोग दु:खदायी हैं’ ऐसा कहा तो फिर हो गया मोक्षमार्गी! यही वीतराग भगवान का साइन्स है, भगवान महावीर कितने बड़े साइन्टिस्ट थे! वीतराग तो जानते थे कि जगत् मात्र संयोगों से खड़ा हो गया है। लोगों ने संयोगों को अनुकूल और प्रतिकूल माना और उन पर राग-द्वेष किए, जबकि भगवान ने तो दोनों को ही प्रतिकूल माना और वे मुक्त हो गए।

‘एगो मे शाषओ अप्पा, नाण दंश्शण संज्जूओ।’

मैं एक शाश्वत आत्मा हूँ, ज्ञान-दर्शनवाला ऐसा शाश्वत शुद्धात्मा हूँ, मैं सनातन हूँ, सिर्फ सत् ही हूँ।

‘शेषा मे बाहिराभावा, सव्वे संयोग लख्खणा।’

ये जो शेष बचे हैं वे सारे बाहरी भाव हैं। उन भावों के लक्षण क्या हैं? वे संयोग लक्षणवाले हैं। ‘बाहिराभावा’ कौन से? संयोग लक्षण, मतलब टेढ़ा विचार वह संयोग, शादी करने के विचार आएँ वह संयोग, विधवा हो जाने का विचार आए, वह संयोग। ये सभी ‘बाहिराभावा’ कहलाते हैं और ये सभी संयोग लक्षणवाले हैं। इन सभी के लक्षण संयोग स्वरूप हैं। जिनका वियोग होनेवाला वे सभी संयोग हैं, वे भूल से बुला लिए थे इसलिए आए हैं।

‘संजोगमूला जीवेण पत्ता दु:खम् परम्परा,

तम्हा संजोग संबंधम् सव्वम् तीवीहेण वोसरियामी।’

सभी संयोग जीव के दु:खों की परंपरा के मूल में हैं। उन सभी संयोगों को दादा भगवान को- वीतराग को अर्पण करता हूँ, यानी कि समर्पण करता हूँ, और इसलिए हम उनके मालिक नहीं रहे। ये संयोग कितने सारे हैं? अनंता हैं। इन अनंत संयोगों को, एक के बाद एक कब छोड़ पाएँगे? इसके बजाय तो उन सभी संयोगों को दादा को अर्पण कर दिया, तो हम छूट गए! आत्मा की अनंत शक्तियाँ हैं, वे इतनी सारी हैं कि एक घंटे में ही करोड़ संयोग कमा लेता है, उसी तरह एक ही घंटे में करोड़ों संयोग निकाल भी सकता है। लेकिन निकालने का अधिकार किसे हैं? ‘ज्ञानीपुरुष’ को!

संयोग और संयोगी, इस तरह दो ही हैं। जितनी हद तक संयोगी सीधा है, उतनी हद तक संयोग सीधे और यदि टेढ़ा संयोग आए तो तुरंत ही समझ लेना है कि ‘हम टेढ़े हैं इसलिए वह टेढ़ा आया।’ संयोगों को सीधे करने की ज़रूरत नहीं है लेकिन हमें सीधा होने की ज़रूरत है। संयोग तो अनंत हैं, वे कब सीधे होंगे? जगत् के लोग संयोगों को सीधा करने जाते हैं, लेकिन खुद सीधा हो जाए तो संयोग अपने आप सीधे हो ही जाएँगे, खुद के सीधा होने के बावजूद भी थोड़े समय तक संयोग टेढ़े दिखते हैं, लेकिन बाद में वे सीधे ही आएँगे। कोई ऊपरी है नहीं, वहाँ टेढ़ा संयोग क्यों आएगा? यह तो खुद टेढ़ा हो गया है इसलिए टेढ़े संयोग आते हैं। पेचिश होती है तब क्या उसके तुरंत के ही बोये हुए बीज होते हैं? ना, वह तो बारह साल पहले बीज पड़ चुके होते हैं उनके कारण अभी पेचिश होती है और पेचिश हुई यानी बारह साल की भूल तो मिटेगी न? वापस फिर से भूल नहीं की तो फिर से पेचिश नहीं होगी। गाड़ी में चढऩे के बाद भीड़वाली जगह मिलती है, क्योंकि खुद ही भीड़वाला है। खुद यदि भीड़ रहित हो चुका हो, तो जगह भी बिना भीड़वाली मिलती है। खुद की भूलें ही ऊपरी हैं, वह अपने को समझ में आ गया फिर है कोई भय? यह हमें देखकर कोई भी खुश हो जाता है। हम भी खुश हो जाते हैं इसलिए अपने आप सामनेवाला भी खुश हो जाता है। यह तो सामनेवाला हमें देखकर खुश तो क्या लेकिन आफ़रीन हो जाता है। सामनेवाला हमारा ही फोटो है!

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