पॉज़िटिव से ऊँची दृष्टि इस जगत् में कोई है ही नहीं। जीवन में हमेशा पॉज़िटिव रहें, नेगेटिव कभी भी न हों तो चिंता, निराशा, डिप्रेशन कभी नहीं आएँगे। लेकिन नेगेटिव बुद्धि का काम ही पूरे दिन अपने नज़दीकी लोगों के नेगेटिव दिखाते रहना है।
नेगेटिविटी का खुद पर और सामने वाले पर उल्टा असर पड़ता है। क्योंकि पूरा ब्रह्मांड परमाणुओं से खचाखच भरा हुआ है। परमाणु का सायन्स इस तरह काम करता है कि हम पॉज़िटिव सोचें, तो परमाणुओं में पॉज़िटिव स्पंदन उत्पन्न होते हैं और नेगेटिव सोचें तो नेगेटिव स्पंदन उत्पन्न होते हैं। किसी भी व्यक्ति के लिए जैसे विचार किए हों, वैसे स्पंदन उस व्यक्ति तक पहुँच जाते हैं। फिर उन स्पंदनों के आधार पर सामने वाले व्यक्ति को भी पॉज़िटिव या नेगेटिव भाव उत्पन्न होते हैं।
नेगेटिविटी के उल्टे असर समझ में आएँ तो उससे बाहर निकलने का निश्चय दृढ़ होता है। हमें सुखी होना है तो नेगेटिव हमें स्पर्श न करे, इस तरह से हमेशा पॉज़िटिव रहना चाहिए।
एक सिक्के के दो पहलू की तरह हमारे दैनिक जीवन व्यवहार के साथ 'पॉज़िटिव' और 'नेगेटिव' जुड़े हुए हैं। जगत् में नेगेटिव से दुःख और पॉज़िटिव से सुख की प्राप्ति होती है। जिसका मन सदा के लिए पॉज़िटिव हो गया, वही भगवान। नेगेटिव, संसारी बातों में समय गँवाए, सुख नहीं आने दे और संसार से बाहर नहीं निकलने दे।
नेगेटिविटी से आनंद चला जाता है, कषाय और दुःख शुरू हो जाते हैं, मन में अशांति-अशांति हो जाती है। खासतौर पर जब व्यक्तियों के प्रति नेगेटिव होता है तो वह खुद को बहुत दुःख देता है। हमारे नेगेटिव स्पंदन सामने वाले को पहुँचते हैं और उनके नेगेटिव प्रतिस्पंदन हमें पहुँचते हैं, ऐसे चक्कर चलता ही रहता है।
नेगेटिव दृष्टि चैन नहीं आने देती, जबकि पॉज़िटिव दृष्टि से मन में शांति बनी रहती है। मान लीजिए कि कोई व्यक्ति हमारे पास से पैसों की बड़ी रकम ले गया हो और वापस नहीं कर रहा हो और रात में विचार आए, "वह लौटाएगा नहीं, अब क्या होगा?" तो पूरी रात नींद नहीं आती। इसके बजाय यदि हम पॉज़िटिव सोचें कि "पैसे आने होंगे तो आ जाएँगे, फिलहाल तो चैन से सो जाते हैं!" तो हमारी रात तो सुधर जाएगी।
जीवन व्यवहार में, हमारे घर में, परिवार में, अड़ोस-पड़ोस में सभी के साथ पॉज़िटिव दृष्टि सेट करते जाएँ तो टकराव कम होंगे और हमें शांति होगी। हमारा मन डिस्टर्ब नहीं होगा। दुनिया में कीमती से कीमती चीज़ अगर कुछ है, तो वह मन की शांति है। बाहरी नुकसान की तुलना में आंतरिक नुकसान बहुत भारी होता है। इसलिए हमेशा पॉज़िटिव रहना चाहिए।
नेगेटिविटी से हमारी शक्तियों का हनन होता है। जैसे, हमें कोई काम सौंपा गया हो, तब अगर मन में ऐसे नेगेटिव हो कि “यह काम मुझसे नहीं होगा”, तो उसी क्षण हमारी काम करने की शक्तियाँ टूट जाती हैं। लगातार खुद के लिए नेगेटिव ही होता रहे, तो आगे चलकर व्यक्ति निराशा और डिप्रेशन का शिकार भी बनता है।
इसलिए, मन में नेगेटिव विचार आए तो, तुरंत वहाँ पॉज़िटिव सेट कर दें कि “क्यों नहीं होगा? ज़रूर होगा।” तो शक्तियाँ नहीं टूटेंगी। हम अपने विचारों और दूसरे व्यक्ति के साथ व्यवहार में जागृत रहें और नेगेटिव विचारों को पॉज़िटिव में परिवर्तित करने पर अपना ध्यान केंद्रित करें तो हमारी आंतरिक शक्तियाँ प्रकट होती हैं।
नज़दीक के व्यक्तियों के प्रति नेगेटिव होने से उनके साथ दूरियाँ बढ़ जाती हैं। कोई व्यक्ति थोड़ा सा हमारे लिए नेगेटिव बोले, तो हमें भी तुरंत उस व्यक्ति के प्रति नेगेटिव शुरू हो जाता है। व्यक्तियों को हमारे साथ और हमें उनके साथ काम करने में मज़ा नहीं आता। घर के नौकर के प्रति भी नेगेटिव दृष्टि हो तो वह काम छोड़कर चला जाता है। जिस व्यक्ति का बार-बार नेगेटिव दिखे, उस व्यक्ति के साथ अंदर से भेद पड़ जाता है, अभेदता नहीं रहती।
किसी व्यक्ति से हमें लगातार अकुलाहट हो रही हो, तो उसका नेगेटिव करने से व्यक्ति सुधरता या बदलता नहीं है, बल्कि हमारी अकुलाहट बढ़ती जाती है। इसके बदले व्यक्ति के लिए पॉज़िटिव रहें तो उसे जीता जा सकता है।
किसी व्यक्ति का बार-बार नेगेटिव दिखाई दे, फिर उस व्यक्ति के साथ हमारा व्यवहार बिगड़ने लगता है। जबकि पॉज़िटिव से व्यवहार सुंदर और शांतिमय होता है।
हर बात में नेगेटिव होने से शिकायतें और मुश्किलें बढ़ती जाती हैं, जबकि पॉज़िटिव रहने से कोई तकलीफ नहीं होती, कोई मुश्किल या शिकायत नहीं रहती।
नेगेटिविटी व्यक्तियों के साथ एडजस्ट नहीं होने देती, दूसरों की भूलें निकालती रहती है। जबकि पॉज़िटिविटी उल्टे में से सीधा ढूँढ कर एडजस्ट हो जाती है, समा जाती है।
हम किसी व्यक्ति के लिए नेगेटिव भाव प्रतिष्ठा करते रहें तो वह ज़्यादा से ज़्यादा बिगड़ता जाता है। एक टेढ़ा शब्द बोलने से सामने वाले को उल्टी गुत्थियाँ पड़ती जाती हैं। जैसे कि, घर में मेहमानों के लिए लड़का पानी ले आए और उसके माँ-बाप कहें कि "हमारा बेटा बहुत सेवाभावी है।“ तो उसके पॉज़िटिव गुण को पोषण मिलता है और वह मन में साइन करता है कि "मैं ज़्यादा सेवा करूँगा।" फिर दूसरी बार दौड़-दौड़कर काम करेगा। लेकिन अगर माँ-बाप ऐसा कहें कि "लड़का बहुत ज़िद्दी है।" या उसने कोई अच्छा काम किया हो लेकिन उसमें भूल हो गई हो और कहें, " पानी तो ले आया, लेकिन गिलास फोड़ दिया, हमेशा नुकसान ही करता है।" तो ऐसी नेगेटिव भाव प्रतिष्ठा से लड़का ज़्यादा बिगड़ता जाता है। फिर वह तय करता है कि "अब काम ही नहीं करूँगा!" बच्चों की भूलें सुधारने के लिए माँ-बाप कलह करें तो उनके अच्छे गुण दब जाते हैं। उनकी बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है।
किसी भी व्यक्ति की भूल हो तो उसे सच्ची समझ दी जा सकती है, लेकिन अगर उसका नेगेटिव बोलेंगे तो उसका गुनाह हमें लगेगा। इसके बदले अगर व्यक्ति के पॉज़िटिव बोलें तो सामने वाले को पावर आ जाता है और खुद को भी गुनाह नहीं लगता।
नेगेटिव शब्द अहंकार को तोड़ देते हैं। इसके बदले सामने वाले की भूल पर मौन रहें तो यह उसके जीवन में बदलाव कर देता है। एक ऐतिहासिक घटना इस बात का सबूत देती है। महात्मा गाँधीजी लगभग पंद्रह साल के थे, तब उनके भाई ने माँसाहार की बुरी आदत के कारण करीब पच्चीस रुपये कर्ज़ लिए थे। उस समय पच्चीस रुपये की कीमत बहुत थी। दोनों भाई सोच रहे थे कि किस तरह से कर्ज़ चुकाएँ, तभी उन्हें एक उपाय मिल गया। गाँधीजी ने भाई के सोने के ठोस कड़े में से एक तोला सोना काटकर बेच दिया और उन पैसों से कर्ज़ चुका दिया। इस चोरी करने का पछतावा होने पर गाँधीजी ने पिता को पत्र लिखकर भूल को कबूल किया। उन्हें था कि उनके पिता गुस्सा करेंगे, कटु वचन सुनाएँगे। लेकिन उल्टा उनके पिता कुछ भी नहीं बोले, मौन रहे। बस उनकी आँखों से आँसू की दो बूँदें टपक पड़ीं। गाँधीजी पर इस मौन का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। उस प्रभाव के असर ने गाँधीजी को पूरी ज़िंदगी कोई भी गलत काम करने से रोका था।
व्यक्ति के लिए नेगेटिव वाणी बोलें तो उसकी मानसिकता डिस्टर्ब हो जाती है। व्यक्ति को दुःख पहुँचता है और उसका अहंकार दुभता है, उत्साह टूट जाता है। पति-पत्नी, सास-बहू, माँ-बाप बच्चे या नौकर-बॉस के बीच ऐसा तरह-तरह का नेगेटिव बोला जाता है। जैसे कि "तू जल्दी नहीं करती, बहुत ढीली है।“ या “तुझे आता ही नहीं, कभी ऊँचा ही नहीं आएगा", "तुझे काम ही नहीं करना, सिर्फ़ दिखावा ही करना है।", "मैं तंग आ गई तुझसे।" ऐसे वाणी के घाव पड़ते हैं फिर सामने वाले का अहंकार बैठ जाता है या विरोध करता है और आड़ाई (अहंकार का टेढ़ापन) करता है।
नेगेटिव वाणी के असर भयानक होते है। "अंधे का बेटा अंधा" द्रौपदी के इन शब्दों से महाभारत का भीषण युद्ध छिड़ गया। इसलिए पॉज़िटिव वाणी बोलनी चाहिए, जो किसी को नुकसान नहीं करती और खुद को भी नुकसान नहीं करती। नेगेटिव से सामने वाले का एक नुकसान होता हो, तो खुद को दस गुना नुकसान होता है।
नेगेटिव वाणी से सामने वाले की साइकोलॉजी पर उल्टा असर पड़ता है। सास रोज़ बहू को कहे कि "तू पागल है" तो कुछ वक़्त में बहू पागल हो जाएगी। जबकि पॉज़िटिव वाणी कोई पागलपन कर रहा हो, तो उसे भी "तू समझदार है" कहे, जिससे उसका पागलपन खत्म हो जाता है। सामने वाले का अहंकार कमज़ोर पड़ने लगे, तो पॉज़िटिव उसे मज़बूत कर देता है। व्यक्तियों के लिए जैसी प्रतिष्ठा करते हैं वैसे वे होते हैं। इसलिए हमें ऐसा बोलना चाहिए कि सामने वाले की नेगेटिविटी खत्म हो जाए। हम इतने पॉज़िटिव हों कि सामने वाले का नेगेटिव पिघल जाए। जैसे चंदन के पेड़ को कुल्हाड़ी मारें, काटें, छीलें या लटककर उछलकूद करें, तो भी वह सुगंध ही देता है। उसी तरह, पॉज़िटिव अहंकार किसी भी परिस्थिति में सामने वाले को सुख ही देता है। जब हमें व्यक्तियों के लिए हमेशा पॉज़िटिव ही दिखाई दे, नेगेटिव कभी भी न हो, तब वाणी भी सुंदर निकलती है।
अक्सर व्यक्तियों के प्रति नेगेटिव होने का कारण ईर्ष्या होती है। "मैं अच्छा हूँ" यह अहंकार बढ़ता है, तो खुद दूसरों का अच्छा देख नहीं सकता, वहाँ ईर्ष्या होती है और उसका किस तरह से बुरा हो ऐसे प्रयत्न शुरू हो जाते हैं। परिणाम स्वरूप, सामने वाले की निंदा-चुगली करके नेगेटिव चर्चाएँ करते हैं। सच में, किसी व्यक्ति की निंदा करें कि "यह व्यक्ति ऐसा है, वैसा है।" तो वह हमारे आत्मा को ही पहुँचती है। दूसरों की निंदा करना, सामने वाले के अंदर बैठे हुए भगवान की निंदा करने के बराबर है। इसके फलस्वरूप खुद को ही दुःख और त्रास भुगतने पड़ते हैं।
अक्सर व्यक्ति की गैरहाज़िरी में उसकी नेगेटिव चर्चा होने से बात का बतंगड़ बन जाता है। लोग चुगली करके उलझनें खड़ी करते हैं और व्यक्ति के पास बात पहुँचती है तो उसे बहुत दुःख होता है। खुद का तो नुकसान होता ही है, साथ ही साथ दूसरे व्यक्ति के कान में भी ज़हर डलता है।
बहुत ज़्यादा निंदा हो, तो अधोगति में जाना पड़ता है, जानवर का अवतार भी हो सकता है। जैसे चोरी की हो तो जेल में जाकर भोगना पड़ता है। बैल जैसे पशु का अवतार हो तो मालिक मुँह पर छींका बाँधकर चाबुक से मारता है, खाने को न दे तो भी खुद कुछ बोल नहीं सकता।
कुदरत का नियम है कि हम दूसरों के अच्छे गुणों को अच्छे कहें, तो वे गुण हमारे अंदर प्रकट होते जाते हैं। किसी व्यक्ति की ईर्ष्या हो रही हो तो उसीके पॉज़िटिव गुणों को एन्करेज करें तो ईर्ष्या खत्म हो जाएगी। इतना ही नहीं, वे गुण हमारे अंदर नहीं होंगे तो प्रकट होंगे और अगर होंगे तो बढ़ेंगे।
नेगेटिव अहंकार खुद को तो दुःखी करता है, बल्कि आसपास के लोग भी इससे दुःखी होते हैं। फिर वह दूसरों पर आक्षेप लगाए या व्यक्तियों के साथ टकराव में आए। उसमें अगर कमज़ोर लोगों के साथ झगड़ा, मारपीट करें तो सामने वाले का अहंकार बैर बाँधता है।
जबकि पॉज़िटिव अहंकार संसार में एक दूसरे को दुःख नहीं होने देता। पॉज़िटिव अहंकार न सिर्फ़ खुद शांति में रह सकता है, बल्कि दूसरों को भी सुख-शांति दे सकता है। पॉज़िटिविटी से संसारी दुःख तो नहीं आते बल्कि मन, वाणी और देह भी निरोगी होते जाते हैं। पॉज़िटिव दृष्टि तुरंत परिणाम देती है, मुक्तता लाती है और बुरे कर्म बँधने से रोकती है। पॉज़िटिविटी से संसार में बैर नहीं बँधता, खुद हल्का होता जाता है। अंत में, अहंकार खत्म होता है तब संसार से मुक्ति होती है।
पॉज़िटिव दृष्टि में इतना ज़्यादा पावर है कि उससे मनुष्य भी भगवान बन सकता है। जबकि नेगेटिव दृष्टि मनुष्य को भी शैतान बना सकती है। उल्टा देखने वाली नेगेटिव बुद्धि इतनी भयंकर गहरी खाई में डाल देती है कि मनुष्य नरक गति के कर्म बाँध लेता है। जबकि सीधा देखने वाली पॉज़िटिव दृष्टि, कोई लाख उल्टा कहे तो भी सीधा ही देखती है।
कृपालुदेव ने कहा है, “मैं तो दोष अनंत का भाजन हूँ करुणामय, दिखे नहीं निजदोष तो तरें कौन उपाय?” दूसरों के दोष देखने में डूबने के कारणों का सेवन होता है, जबकि अपने दोषों को देखने से संसार सागर पार किया जा सकता है।
आत्मा पॉज़िटिव पक्ष है और बुद्धि नेगेटिव पक्ष है। पॉज़िटिव से हमारा आध्यात्मिक स्तर बहुत ऊँचा जाता है। नेगेटिव हो जाएँ तो बाहर शायद हमें लौकिक मान्यता से लगता है कि फायदा हुआ, लेकिन कुल मिलाकर अंदर बहुत नुकसान होता है, आध्यात्मिक स्तर बहुत नीचे चला जाता है।
एक बार पॉज़िटिव दृष्टि का स्वाद चख लें फिर वह कभी छूटती नहीं। पॉज़िटिव रहने से बाहर भले नुकसान हो, लेकिन अंदर बहुत मुक्तता और आनंद रहते हैं। आर्तध्यान-रौद्रध्यान कम हो जाते हैं। पॉज़िटिव दृष्टिवाला मनुष्य आगे बढ़कर सम्यक् दृष्टि प्राप्त करके मोक्ष तक पहुँच सकता है।
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