
सुखी होने का सच्चा मार्ग है, नीति और ईमानदारी से भरा जीवन। जहाँ मनुष्य नीति और ईमानदारीपूर्वक जीवन जीता है, तो वहाँ सदा प्रभु का निवास रहता है। मनुष्य जीवन में यदि इन तीन चीज़ों का पालन हो जाए, तो उसमें समग्र व्यवहार धर्म समा जाता है:
जहाँ ईमानदारी, नैतिकता और ऑब्लाइजिंग नेचर - ये तीन गुण होते हैं, उसके बाकी सब दुर्गुण खत्म हो जाते हैं। जहाँ प्रत्येक व्यवहार में संपूर्ण नीति होती है, वहाँ सुख होता है। उसमें भी जो अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के सुख के लिए जीते हैं, उन्हें बहुत ही सुख होता है।
लेकिन आजकल व्यापार में पैसे कमाने की लालच के कारण, नीति और ईमानदारी का स्थान अनीति, मिलावट, भ्रष्टाचार और काला बाज़ार ने ले लिया है। “बॉय, बोरो, ऑर स्टील” (पैसा प्राप्त करने के लिए जो ज़रूरी हो वह रास्ता अपनाओ) इस तरीके से यदि धन घर में आता है, तो अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसी स्थिति हो जाती है। मृत्यु के बाद जब अर्थी निकलेगी, तो पैसा तो यहीं पड़ा रहेगा, लेकिन जो भयंकर पापकर्म बंधे हैं, वे हमारे साथ आएँगे, जिसके परिणामस्वरूप खुद दुःख और अधोगति भुगतता है। रोज़गार करते समय यदि ईमानदारी होगी, तो वहाँ फिर से मनुष्यपन प्राप्त होगा, लेकिन जहाँ अणहक्क की लक्ष्मी को भुगतने की नीयत है, उन्हें तो उसे भुगतने के लिए पशु-योनि में ही जाना पड़ेगा। फिर चाहे वह कितना भी भक्ति या दान-पुण्य करता हो!
परम पूज्य दादाश्री हमें धर्म का आधार समझाते हुए कहते हैं,
दादाश्री: व्यापार में बिना हक़ का नहीं होना चाहिए और जिस दिन बिना हक़ का ले लिया जाए, उस दिन से व्यापार में बरकत नहीं रहेगी। भगवान कुछ करते ही नहीं हैं। व्यापार में तो आपकी कुशलता और आपकी नैतिकता, दोनों ही काम आएँगी। अनैतिकता से साल-दो साल ठीक चलेगा, लेकिन बाद में नुकसान होगा। यदि गलत हो जाए तो अंत में पछतावा करोगे तो भी छूट जाओगे। व्यवहार का सार यदि कुछ है, तो वह नीति ही है, नीति होगी और यदि पैसे कम होंगे तो भी आपको शांति रहेगी और यदि नीति नहीं होगी और पैसे ज़्यादा होंगे, फिर भी अशांति रहेगी। नैतिकता के बिना धर्म ही नहीं है। धर्म का आधार ही नैतिकता है।
लोगों की ऐसी मान्यता होती है कि ईमानदारी से व्यापार करने जाएँ, तो ज़्यादा मुश्किलें आती हैं, लेकिन लोगों को यह नहीं पता है कि, बेईमानी से व्यापार करने में जो पापकर्म बँधते हैं, उन्हें भुगतने में जो मुश्किलें आएँगी, उनकी तुलना में यह मुश्किलें कम हैं। ईमानदारी तो प्रभु का अनुमति है, उसे फाड़कर नष्ट नहीं करना चाहिए।
“ऑनेस्टी इज़ द बेस्ट पॉलिसी.”लेकिन ईमानदारी के प्रति लोगों की श्रद्धा डगमगा गई है। इसीलिए परम पूज्य दादाश्री ने इस काल के अनुरूप नया सूत्र दिया है,“डिस्ऑनेस्टी इज़ द बेस्ट फुलिशनेस!”
नीति की मर्यादा कैसे तय होती है? जिस व्यापार से किसी को दुःख न होता हो जिसमें हिंसा न समाई हो, वह व्यापार अच्छा है। खाने की चीज़ो में मिलावट करना तो वह अधर्म कहलाता है। व्यापार में यदि अधर्म प्रवेश कर जाए तो मनुष्य से जानवर में जाने की बारी आ जाती है। मान लीजिए, कोई किराने का व्यापारी एक ट्रक अच्छी गुणवत्ता वाला इंदौरी गेहूँ मँगवाए और उसमें एक ट्रक रेत मिलाकर गेहूँ की बोरियाँ भरकर बेचे, तो यह नीति नहीं कहलाएगी। जो चीज़े मनुष्य के भोजन या दवा में इस्तेमाल की जाती हैं, उसमे तो मिलावट बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। तेल, दूध, सब्ज़ियाँ, अनाज और दवाएँ मनुष्य के शरीर में जाते हैं और उसमे मिलावट हो तो शरीर में रोग और दुःख उत्पन्न होते हैं। इसलिए उसमें मिलावट करना गुनाह है।
उसी तरह कपड़े के व्यापारी कपड़े को खींच-खींचकर नाप के देते हैं, यानी मान लीजिए कि चालीस मीटर कपड़ा दिया हो, तो दाम चालीस मीटर का लेते हैं और आधा मीटर कपड़ा कम देते हैं। यह भी अनीति का आचरण कहलाएगा, जिसके दंडस्वरूप अधोगति आएगी। ऐसा करने के बजाय कपड़े की कीमत थोड़ा ज़्यादा रखना, लेकिन कपड़ा सही नाप से ही देना चाहिए, लेकिन बहुत से व्यापारी ऐसा सोचते हैं कि यदि ज़्यादा कीमत रखेंगे तो ग्राहक दूसरी दुकान में चले जाएँगे, लेकिन अगर ग्राहक एक बार ठगा जाएगा तो दूसरी बार दुकान में आना बंद कर देगा। इसके बजाय कम नफ़े में ईमानदारी का व्यापार करना अधिक अच्छा है।
आजकल पैसे कमाने की उद्देश्य से, मकान बनाने के लिए सीमेंट की बोरियों में से सीमेंट निकालकर, मात्रा से अधिक रेत और रोड़ी मिला दी जाती है। ज़रूरत से कम और हल्की गुणवत्ता वाला लोहा इस्तेमाल किया जाता है। परम पूज्य दादाश्री कहते हैं कि इस तरह सीमेंट निकाल लेना वह मनुष्य का रक्त चूस लेने के बराबर है। साथ ही लोहा निकाल लेना वह मनुष्य के शरीर से हड्डियाँ निकाल लेने के बराबर है। जैसे रक्त और हड्डियों के बिना शरीर में कुछ नहीं रहता, वैसे ही मकान बनाने की चीज़ों में मिलावट हो तो उसकी मजबूती खतरे में पड़ जाती है। व्यापार में मिलावट करने वालों को संबोधित करते हुए परम पूज्य दादाश्री यहाँ तक कहते हैं कि, “हमें चोरी शोभा नहीं देती। हम साहूकार होकर चोरी करें उससे तो चोर अच्छे। ये चोरी करते हैं न, उनके बजाय, जो मिलावट करते हैं वे अधिक गुनहगार हैं। उन्हें तो पता ही नहीं है कि, 'मैं यह गुनाह कर रहा हूँ उसका क्या फल मिलेगा'। मूर्छित दशा में, समझ के बिना ही गुनाह कर रहे हैं।“
सबसे अधिक हिंसा वाला व्यापार कसाई का है। उसके बाद कुम्हार का व्यापार है, जिसमें मिट्टी के घड़े पकाने के लिए भट्टियाँ जलायी जाती हैं। उसमें बहुत से जीव मर जाते हैं। कीटनाशक दवाओं के व्यापार में भी बहुत जीवों की हिंसा होती है। किराने के व्यापार में भी चाहे कितना संभालें फिर भी उसमें कीड़े गिर जाते हैं और हिंसा होती है। इतना ही नहीं, अनाज के साथ एक-दो तोले कीड़े भी बिक जाते हैं। सबसे कम हिंसा वाला व्यापार जौहरी का है, जिसमे हीरे-माणिक में मिलावट की मात्रा कम होती है। हालांकि आजकल तो उसमें भी मिलावट बढ़ गई है।
दूसरा, ब्याज लेकर पैसे उधार देने के धंधे के सामने भी परम पूज्य दादाश्री ने चेतावनी दी है। जहाँ तक हो सके, किसी को पैसे उधार न दें। क्योंकि, जब सामने वाला व्यक्ति वापिस नहीं दे पाता, तब उस पर ब्याज चढ़ता जाता है और उसे बहुत दुःख होता है। इसके बजाय बैंक में पैसे रखने में कोई परेशानी नहीं है। किसी व्यक्ति को पैसा उधार देने वाला, मनुष्य डेढ़-दो-ढाई प्रतिशत ब्याज के लालच में कब उस व्यक्ति के प्रति निर्दयी हो जाए, यह कहा नहीं जा सकता। यदि किसी व्यक्ति को जरूरत पड़ने पर पैसे दें, तो भी बैंक में जो ब्याज चल रहा हो, वही लें। और वक्त आने पर उस व्यक्ति के पास लौटाने के लिए ब्याज तो क्या, जो पैसे दिए थे वो भी न हो, तो मौन रहना चाहिए। किसी को पैसे उधार देते समय वे वापिस आएँगे उसकी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए। पैसे समुद्र में गिर गए हों तो वापस नहीं आएँगे, ऐसा मानकर चलना।
बहुत से लोग सरकारी कानूनों का लाभ उठाने के लिए, कम टैक्स वाले स्लैब की आय दिखाकर पैसे बचाते हैं। इस तरह, सरकार को देने वाले इनकम टैक्स की चोरी करना वह भी गुनाह है। इतना ही नहीं, वकील और डॉक्टर जैसे व्यवसायों में भी पैसे कमाने के लिए जो कुछ गलत काम करने पड़ते हैं, उस विषय में बहुत चर्चा नहीं होती, लेकिन उन सभी में जोखिमदारी खुदकी ही होती है, जिसका फल भुगते बिना छुटकारा ही नहीं है!
व्यापार में फायदा हो या नुकशान, दोनों ही परिस्थितियों में हमें अपने अधीन काम करने वाले लोगों का ध्यान रखना चाहिए। मंदी के दौरान यदि मज़दूरों का शोषण होगा, तो तेज़ी के समय मज़दूर मालिक को परेशान करेंगे। मज़दूर पूरा दिन मेहनत करके प्रतिदिन की रोटी जुटाते हैं। ऐसे में यदि उनके पैसे रोककर रखें, तो उन बेचारों के भूखे सोने का वक्त आ जाएगा। इसलिए चाहे कैसी भी परिस्थिति हो, लेकिन उनका वेतन दे देना चाहिए।
अनीति और बेईमानी से यदि हम किसी को दुःख दें, तो बदले में हमें दुःख आए बगैर नहीं रहेगा। इसलिए संसार में यदि सुख चाहिए, तो नीति और ईमानदारी को बनाए रखना चाहिए।
कई बार हमें नीति से चलना तो होता है, लेकिन काल के अनुसार हमें अनीति का भोग बनना पड़ता है, तब क्या करना चाहिए? मान लीजिए हम ऐसी नीति का पालन करते हैं कि हमें रिश्वत नहीं लेनी है लेकिन व्यापार में किसी काम के लिए हम रिश्वत न दें, तो काम रुक जाता है ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे समय में परम पूज्य दादाश्री प्रैक्टिकल उपाय बताते हुए कहते हैं कि, यदि हमारा हाथ किसी पत्थर के नीचे आ जाए, तो संभालकर हाथ निकाल लेना चाहिए, नहीं तो हाथ टूट जाएगा। जैसे रास्ते में लुटेरे लूटने आएँ और हम पैसे न दें, तो वे हमें चोट पहुँचा सकते हैं। उसी तरह व्यापार में इस प्रकार के "सिविलाइज़्ड (सुधरे हुए) लुटेरों" का सामना हो, तब मजबूरी में उन्हें पैसे देकर छुटकारा पा लेना चाहिए। वहाँ नीति का आग्रह पकड़कर रखेंगे तो मुश्किलें हो जाएँगी। फिर भी, हमारा भाव सौ प्रतिशत नीति का पालन करने का ही होना चाहिए। लेकिन हमारे कारण कहीं हिंसा होती हो, किसी को दुःख हो रहा हो, कोई मारा जा रहा हो, ऐसा न हो इसका खास ध्यान रखना चाहिए। यदि कोई हमारे साथ चालाकी करने आए, तो हमें वहाँ से निकल जाना चाहिए, लेकिन हमें उसके सामने चालाकी नहीं करनी चाहिए।
फिर भी, परम पूज्य दादाश्री इस काल के अनुरूप प्रैक्टिकल उपाय बताते हुए कहते हैं की, इस काल में संपूर्ण नीति का पालन हो ऐसा संभव न हो तो नियम से अनीति का पालन करना चाहिए। मान लीजिए कि, एक इनकम टैक्स ऑफिसर ने सौ प्रतिशत नीति का पालन करने का निश्चय किया हो, इसलिए वह कभी रिश्वत नहीं लेता है। लेकिन उसके सहकर्मियों ने रिश्वत ले-लेकर गाड़ी और बंगले बनवा लिए हों, इसलिए देखादेखी के कारण घर में पत्नी के साथ रोज़ झगड़ा होता रहता है कि, "आप रिश्वत क्यों नहीं लेते? ऐसे के ऐसे ही रह गए!” कई बार तो बच्चों की स्कूल की फीस भी उधार लेनी पड़ती है।“ उस समय ऑफिसर के भी मन में खटकता रहता है कि पैसों की कमी है, थोड़े पैसे खर्च के लिए मिलें, तो घर में शांति रहेगी, लेकिन रिश्वत ले नहीं सकता तो क्या करे? कई बार ऑफिस में दूसरे लोग रिश्वत लेते हों, लेकिन हम सिद्धांत पर अड़े रहकर रिश्वत न लें, तो सहकर्मियों को बुरा लगे और वे सीधा या अलग तरीके से हमें रिश्वत लेने के लिए दबाव डालते हैं ऐसा हो तब क्या करना चाहिए? इसका उपाय बताते हुए परम पूज्य दादाश्री कहते हैं कि तब हमें महीने में जितने खर्च की जरूरत है, उतने ही पैसों की रिश्वत लेनी चाहिए, ऐसा तय करना चाहिए। फिर उससे ज्यादा रिश्वत आए तो नहीं लेनी चाहिए।
परम पूज्य दादाश्री के ही शब्दों में नियम से अनीति के पीछे का आशय और भी स्पष्ट समज में आता है।
दादाश्री: आजकल लोग किस तरह इन सब मुश्किलों में दिन गुज़ारते हैं? और फिर उसकी रुपयों की कमी पूरी न हो तो क्या होगा ? उलझन पैदा होगी कि, 'रुपये कम पड़ रहे हैं, वे कहाँ से लाएँ?' यह तो उसे जितनी कमी थी उतनी मिल गई। फिर उसकी भी पज़ल सॉल्व हो गई न ? वर्ना इसमें से व्यक्ति उल्टा रास्ता चुन लेगा और उल्टे रास्ते पर चलने लगेगा, फिर पूरी तरह से रिश्वत लेने लगता है, उसके बजाय बीच का रास्ता निकाला है। उसने अनीति की फिर भी नीति कहा जाएगा, और उसे सरलता भी हो गई न। नीति कहा जाएगा और उसका घर भी चलेगा।
लेकिन यदि परम पूज्य दादाश्री की इस बात का उल्टा अर्थ करे कि, "अनीति करने में कोई हर्ज़ नहीं है" और इसका दुरुपयोग किया जाए, तो जोखिमदारी खुद पर ही आती है।
इसके बावजूद, गलत रास्ते से आई हुई लक्ष्मी धर्म के कार्यों में खर्च कर देना चाहिए। आय का कुछ हिस्सा मंदिर बनाने के काम में, गरीबों को भोजन या औषधदान जैसे पुण्य के सत्कार्यों में लक्ष्मी का उपयोग कर देना चाहिए।
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