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व्यापार में फायदा या नुकसान हो तब क्या करें?

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व्यापार के दो बेटे हैं, जो नियम से ही जन्में हैं। एक का नाम नुकसान और एक का नाम फायदा। फायदा सबको पसंद है और नुकसान किसी को भी पसंद नहीं है, लेकिन दोनों साथ में ही होते हैं। जब व्यापार में फायदा या नुकसान हो तब मनुष्य को समभाव में रहना चाहिए। समभाव यानी फायदे में बहुत अति उत्साहित न हो जाएँ और नुकसान में डिप्रेशन में न जाएँ। अगर मनुष्य को सही समझ मिले, तो फायदा और नुकसान दोनों के समय समभाव रह सकता है।

चिंता से व्यापार की मौत

जो चढ़ता-उतरता है, उसे ही व्यापार कहते हैं। व्यापार करने के लिए तो बड़ी हिम्मत चाहिए। हिम्मत न हो तो व्यापार ठप्प हो जाता है। चिंता से व्यापार की मौत हो जाती है। व्यापार में अगर चिंता होने लगे तो समझ जाना कि काम बिगड़ने वाला है और यदि चिंता न हो, तो समझना कि काम में अवरोध नहीं आएगा। व्यापार बढ़ाने के लिए सामान्य रूप से सोचने की वास्तव में ज़रूरत है, लेकिन इससे आगे बढ़कर अगर दिन-रात व्यापार के ही विचार आने लगें, तो समझना चाहिए कि यह नॉर्मेलिटी से बाहर चला गया है। व्यापार के विचार तो आएँगे, लेकिन यदि ये विचार बढ़ने लगें और फिर उससे ध्यान उत्पन्न होने लगे, तो उससे चिंता होने लगती है और चिंता बहुत नुकसान करती है। इसलिए चिंता हो उससे पहले ही विचारों को एक तरफ रख दें।

जैसे हम चिंता न करें फिर भी दाढ़ी के बाल अपने आप उगते हैं, खाना खाकर सो जाने के बाद भोजन का पाचन अपने आप होता रहता है। उसी तरह यदि हम चिंता न करें तो भी व्यापार चलता रहेगा। इसलिए रात को निश्चिंत होकर सो जाएँ। इसके बावजूद भी यदि मन उछल-कूद करे कि “कल का काम आज ही निपटा दूँ” तो मन से कहना कि, “सभी सो गए हैं, तू अकेला क्यों जाग रहा है? बिना वजह हल्ला-गुल्ला करेगा तो भी कुछ होनेवाला नहीं है।” पूरी रात जागकर काम करें और अगले दिन सुबह देर से उठें, इसके बजाय निश्चिंत होकर सो जाएँ। मतलब, व्यापार बढ़ाने के सारे प्रयत्न करें, लेकिन चिंता न करें।

व्यापार निश्चित भाव से, शांति से करें। उसमें पैसे कमाने या लाभ लेने की ज़्यादा ज़ल्दबाजी न करें। हाँ, यदि घर में अनाज और पहनने के कपड़ों की कमी हो रही हो तो पैसे कमाने के लिए हाय-हाय करें। कई बार व्यापार दो साल तक आगे बढ़ना रुक जाए, तो भी घर में खाने-पीने और रहने की कोई परेशानी नहीं होती, ऐसा होता है। तब स्थिरता रखनी चाहिए। इसके बावजूद हम फायदा होने के लिए भागदौड़ कर देते हैं। हम लक्ष्मी को जीने का आधार मान बैठे हैं, लेकिन वह आधार कब खिसक जाए यह कहा नहीं जा सकता। इसलिए पहले से ही इस तरह से जिएँ कि जिससे नुकसान के समय हिल न जाएँ।

फायदा-नुकसान में अलौकिक समझ

परम पूज्य दादाश्री खुद आत्मज्ञान का संपूर्ण अनुभव पाने से पहले संसार में कॉन्ट्रैक्ट का व्यापार करते थे। वे कहते हैं कि, घर में सभी की तबियत ठीक हो, उस समय व्यापार के खाते में नुकसान हो तो भी समझना कि फायदा ही है। व्यापार की स्थिति बिगड़े या न बिगड़े, घर के सदस्यों की तबियत नहीं बिगड़नी चाहिए। अगर जीवन का गणित हम इस तरह बदल दें, तो फायदा-नुकसान दोनों में समभाव रहेगा।

परम पूज्य दादा भगवान ने व्यापार में नुकसान के समय अपने ही अनुभवों से जो निष्कर्ष निकाला, यह हमें उनके ही शब्दों में मिल रहा है।

दादाश्री: पहले हमें एक बार, हमारी कंपनी को घाटा हुआ था। ज्ञान होने से पहले तब हमें पूरी रात नींद नहीं आई। चिंता होती रही। तब भीतर से जवाब आया कि अभी कौन-कौन इस घाटे की चिंता करता होगा ? मुझे ऐसा लगा कि मेरा पार्टनर तो शायद चिंता न भी करता हो। मैं अकेला ही कर रहा हूँ और बीवी-बच्चे सब पार्टनर हैं लेकिन वे तो कुछ जानते ही नहीं हैं। अब वे सब नहीं जानते, फिर भी उनका चल रहा है, तो मैं अकेला ही बेअक्ल हूँ, जो यह सब चिंता कर रहा हूँ! तब फिर मुझे अक्ल आ गई क्योंकि वे चिंता नहीं करते। सब पार्टनर हैं, फिर भी चिंता नहीं कर रहे तो मैं अकेले ही चिंता करता हूँ।

तब मुझे अक्ल आ गई इसलिए चिंता नहीं करता। अरे, वे लोग चिंता नहीं करते तो मुझे चिंता करने की क्या जरूरत है? मुझे तो अपना कर्तव्य निभाना है, चिंता नहीं करनी है। यह फायदा नुकसान ये तो सब कारखाने का होता है। अपने ऊपर नहीं है। हम तो कर्तव्य निभाने के अधिकारी हैं। ये सब तो कारखाने का होता है। कारखाना सिर पर लेकर घूमते हैं, तो रात को कितनी नींद आएगी?

मन का स्वभाव ऐसा है कि इसके मन के अनुसार न हो, तो वह निराश हो जाता है। इसलिए पहले से हमें कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए, या फायदे की आशा हो वहाँ नुकसान होगा ऐसी धारणा बनानी चाहिए। इससे नुकसान होने पर चिंता नहीं होगी। मान लीजिए कि व्यापार में जहाँ पाँच लाख मिल सकें, ऐसा हो, वहाँ पहले से ही तय कर लेते थे कि एक लाख रुपये मिलें तो बहुत है। इसमें अंत में तो बिना फायदा-नुकसान के हो जाए, इन्कम टैक्स का और घर खर्च निकल जाए तो बहुत हो गया। ऐसी धारणा बाँधी हो और उसमें तीन लाख का फायदा हो जाए तो आनंद होता है, कि जितना सोचा था उससे कहीं ज़्यादा मिला। लेकिन यदि पाँच लाख की धारणा बनाई हो और तीन लाख मिले, तो चिंतित और दुःखी होते हैं। इसलिए नुकसान हो जाए ऐसी हमें इच्छा नहीं रखनी, लेकिन नुकसान हो जाए तो निराश न हों इसके लिए यह चाबी है। वैसे भी व्यापार यानी इस पार या उस पार, फायदा और नुकसान दोनों आएँगे ही। यदि फायदे की आशा के महल बाँधें होंगे तो निराशा आए बिना नहीं रहेगी।

फायदा हो तो उसे व्यापार का फायदा मानना और नुकसान हो जाए उसे भी व्यापार का मानना। हमें दोनों को ही सिर पर नहीं लेना चाहिए। व्यापार का स्वभाव ही है कि वह फायदा और नुकसान दिखाता है, ब्लैक एंड व्हाइट, ब्लैक एंड व्हाइट चलता ही रहता है। इसमें हमें तय करना चाहिए कि मुझे आर्तध्यान या रौद्रध्यान नहीं करना है। आजकल व्यापार में ज़रा सी भी असफलता मिलते ही व्यक्ति हताश हो जाता है। उस समय पॉज़िटिव सोचना चाहिए कि “रुपये डूब गए तो क्या हुआ? हम तो रहने वाले हैं। कोई हमें दो लाख में हमारी दो आँखें बेचने को कहे, तो हम बेचेंगे? दस लाख में लीवर और पंद्रह लाख में हृदय बेचने को कहे तब? हम नहीं बेचेंगे। इतनी बड़ी संपत्ति के मालिक हम खुद हैं, तो फिर रुपए गए इसकी चिंता क्यों करें? हम जीवित हैं तो दूसरी बार फायदा कमा लेंगे।

लोग एक व्यापार में घाटा हो जाए तो उसे बंद करके दूसरा व्यापार शुरू करते हैं या नौकरी करने का विचार करते हैं। परम पूज्य दादाश्री कहते हैं कि व्यापार में हुआ नुकशान व्यापार से ही पूरा होता है। जिस बाजार में व्यापार को घाव लगा हो, उसी बाजार में वह घाव भरेगा और वहीं उसकी दवा होती है। जैसे की, रुई बाज़ार में नुकशान हुआ हो तो वह किराने की दुकान खोलने से वह पूरा नहीं होता और यदि कॉन्ट्रैक्ट के व्यापार में हुआ नुकशान पान की दुकान खोलने से पूरा नहीं होता।

फायदे की लालच में ग्राहकों के साथ संबंध न बिगड़ने दें। यदि हमने ग्राहक को गलत माल देकर धोखा दिया हो, फिर व्यापार बंद कर दें, तब भी वे याद रखते हैं। परम पूज्य दादाश्री कहते हैं कि, “हमें सत्य, हित, प्रिय और मित की तरह काम लेना है। यदि कोई ग्राहक आए तो उन्हें प्रिय लगे उस तरह से बात करनी है कि, उन्हें हितकारी हो ऐसी बातचीत करनी है। ऐसी चीज़ मत दो कि जो उसे घर ले जाने के बाद कुछ काम न आए। तो वहाँ हमें उनसे कहना चाहिए कि, “भाई, यह चीज़ आपके काम की नहीं है।“ ईमानदारी से व्यापार करना, क्योंकि ग्राहकों का विश्वास जीत लिया, तो वे सालो तक याद रखेंगे।

व्यापार में नॉर्मलिटी और विवेक

व्यापार के समय में भी नॉर्मलिटी रखें। मान लीजिए कि, हमारी दुकान हो, तो पूरी दुनिया जब दुकान खोलती है तभी खोलें और जब बंद करें तब हमें भी बंद करके घर चले जाना चाहिए। बहुत से लोग फायदा मिलने की आशा से दुकान ज़ल्दी खोलते हैं और देर से बंद करते हैं, लेकिन इसमें कोई बड़ा फायदा नहीं होता। और उसमें यदि एक दिन नौकर ज़रा-सा देर से आए, तो उसे डाँट देते हैं और अपने ही कषाय बढ़ाते हैं। अगर दुकान में ग्राहक न आए तो सारा दिन चक्कर चलता रहता है कि आज कमाई नहीं हुई। जैसे इलेक्ट्रिसिटी जाए, तो हम दौड़-धाम नहीं करते, शांति से बैठकर इंतजार करते हैं। ज़्यादा से ज़्यादा तो एक-दो बार फ़ोन करते हैं, फिर बिजली अपने आप वापस आ जाती है। इसी तरह, व्यापार में नुकसान के समय में दौड़-धाम न करें और भाव न बिगाड़ें, बल्कि धीरज और ‘रेगुलैरिटी’ रखनी है। जब ग्राहक आए तो शांति से व्यवहार करना है और न आए तब भगवान का नाम लेना है।

व्यापार इतना ही करना कि हमें रात में चैन से नींद आए। व्यवहार संभालकर व्यापार में जाएँ। व्यवहार को संभालने में चैन से भोजन करना, शरीर को जरूरी आराम और नींद देना, घर के सदस्यों को समय देना यह सब समा जाता है। हम चार शिफ्ट में व्यापार करें, तो इससे दो सौ साल का आयुष्य नहीं हो जाएगा। इसलिए पूरा दिन कढ़ापा और अजंपा हो ऐसी भागदौड़ करने का कोई अर्थ नहीं है। परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, “पैसा कमाने पर ज़ोर करने जैसा नहीं है। धन में बरकत किस तरह आती हैं वह सोचने जैसा है।” बहुत धन होने के बावजूद अगर पूरे दिन उपाधि, हाय-हाय, चिंता और जलन होती रहती है तो समझना चाहिए कि धन बरकत बगैर का है। जो धन हमें शांति दे, वह बरकत वाला है और दुःख दे वह बरकत बगैर का है।

हम हर तरफ़ से प्रयत्न करने के उसके बावजूद व्यापार में फायदा न हो, तो समझना चाहिए कि अभी अनुकूल संयोग नहीं हैं। ऐसे समय में अगर हम ज़्यादा प्रयत्न करने जाएँगे, तो ज़्यादा नुकसान होगा। इसके बजाय व्यापार में बुरा समय चल रहा हो, तब धर्म की और आगे बढे। भगवान की भक्ति, आराधना या सत्संग में समय बिताएँ। यदि घर में सब्ज़ी नहीं ला सकते, तो खिचड़ी खाकर दिन गुजारें, इस तरह किफायत से जीवन गुजारें। फिर जब संजोग अनुकूल हो जाएँ और व्यापार में फायदा होने लगे, तब एक्स्ट्रा पैसों को भगवान के मंदिर बनाने जैसे पुण्य कार्यों में या किसी गरीब को दान देने में, भूखे को भोजन कराने में खर्च करें।

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