इसलिए हम परम हित की बात बताते हैं, ट्रिकें इस्तेमाल करना बंद करें। चोखा व्यापार करें। ग्राहकों से साफ कह दें कि इसमें मेरे पंद्रह प्रतिशत मुनाफा जुड़ा है, आपको चाहिए, तो ले जाइए। भगवान ने क्या बताया है? यदि तुझे तीन सौ रुपये मिलनेवाले हैं, तो चाहे तू चोरी करे, ट्रिक आजमाए या फिर चोखा रहकर धंधा करे, तुझे उतने ही मिलेंगे। उसमें एक पैसा भी इधर-उधर नहीं होगा। फिर ट्रिकें और चोरी की ज़िम्मेदारी क्यों मोल लें? थोड़े दिनों न्याय से व्यापर करके देखो। शुरू-शुरू में छः-बारह महीने तकलीफ होगी, पर बाद में फर्स्ट क्लास चलेगा। लोग भी समझ जाएँगे कि इस मनुष्य का धंधा चोखा है, मिलावटवाला नहीं है। तब बिन बुलाए, अपने आप आपकी दुकान पर ही आएँगे। आज आपकी दुकान पर कितने ग्राहक आनेवाले हैं, यह व्यवस्थित 'व्यवस्थित' ही है। तब अभागा गद्दी पर बैठकर, 'अभी ग्राहक आएँ तो अच्छा, अभी ग्राहक आएँ तो अच्छा' ऐसा सोचा करता है और अपना ध्यान खराब करता है।
यदि मन में ऐसा तय किया हो कि मुझे चोखा, बिना मिलावट का धंधा करना है, तो ऐसा आ मिलेगा। भगवान ने कहा है कि खाने की चीज़ो में और सोने में मिलावट करना भयंकर गुनाह है।
कच्छी लोगों को भी ये ट्रिकें आज़माने का भयंकर रोग लग गया है। वे तो बनियों को भी मात दें ऐसे हैं।
आजकल तो ज़माना ही ऐसा है कि ट्रिकवालों के बीच ही रहना पड़ता है, फिर भी लक्ष्य में निरंतर यही रहना चाहिए कि हम ट्रिकों में से कैसे छूटें। यदि यह लक्ष्य में रहा, तो पश्चाताप द्वारा बड़ी ज़िम्मेदारी से छूट जाएँगे और ऐसे संयोग भी प्राप्त होंगे कि आपको एक भी ट्रिक आज़मानी नहीं पड़ेगी और व्यापार भी सुचारु रूप से चलेगा। फिर लोग भी आपके काम की सराहना करेंगे।
यदि हमें मोक्ष में जाना है, तो ज्ञानी के कहे अनुसार करना चाहिए और यदि मोक्ष में नहीं जाना है, तो ज़माने के अनुसार करना। पर मन में इतना खटका अवश्य रखना कि मुझे ऐसा ट्रिकवाला काम नहीं करना है, तो वैसा काम आ मिलेगा। व्यापार में तो ऐसा होना चाहिए कि छोटा बच्चा आए, तो उसके माता-पिता को ऐसा भय नहीं रहना चाहिए कि बच्चा ठग लिया जाएगा।
१) पैसे कमाना यह बुद्धि के खेल नहीं और ना ही मेहनत का परिणाम है। वह तो आपने पिछले जन्म में पुण्य किया है, उसके फल स्वरूप आपको प्राप्त होता है।
२) चोरियों से। जहाँ मन-वचन-काया से चोरी नहीं होती वहाँ लक्ष्मीजी कृपा करें। लक्ष्मी का अंतराय चोरी से है। ट्रिक (चालाकी) और लक्ष्मी को बैर है।
३) रुपयों का स्वभाव हमेशा से कैसा है? चंचल, इसलिए दुरुपयोग नहीं हो उस तरह आप उसका सदुपयोग करें। उसे स्थिर मत रखना। संपत्ति के प्रकार कितने हैं? तब कहें, स्थावर (अचल) और जंगम (चल)। जंगम माने ये डॉलर आदि सब, और स्थावर माने यह मकान आदि सब! उन में यह स्थावर अधिक टिकेगी। और जंगम माने नकद डालर आदि जो हो वे तो चले ही समझें! अर्थात् नकद का स्वभाव कैसा? दस साल से ज्यादा यानी ग्यारहवे साल नहीं टिकते। फिर सोने का स्वभाव चालिस-पचास साल टिकने का, और स्थावर मिल्कियत का स्वभाव सौ साल टिकने का। अर्थात् मुदतें सभी अलग-अलग होगी मगर आखिर में तो सभी जानेवाला ही है। इसलिए हमें यह सब समझकर चलना चाहिए। ये वणिक पहले क्या करते थे, ऩकद पच्चीस प्रतिशत ब्याज पर रखते थे। पच्चीस प्रतिशत सोने में और पच्चीस प्रतिशत मकान में लगाते, इस प्रकार पूँजी की व्यवस्था करते थे।
१) तेरी अपनी वस्तु तूने दूसरों को दी कि भीतर आनंद शुरू हो जाये।
२) मैंने कहा, 'देख भाई, प्रत्येक की जरूरत कितनी होनी चाहिए उसका अंदाज, उसके (खुद के) जन्म के समय क्या शान-शौकत थी, इसके अंदाज से सारी जिन्दगी के लिए तू प्रमाण निश्चित कर। वही दरअसल नियम है। यह तो सब एक्सेस में (अति) जाता है और एक्सेस तो ज़हर है, मर जायेगा!'
३) पैसे कमाने की भावना करने की जरूरत नहीं है, प्रयत्न भले ही चालू रहे। ऐसी भावना से क्या होता है कि, अगर पैसे मैं खींच लूँ तो सामनेवाले के हिस्से में रहते नहीं। इसलिए कुदरती क्वॉटा (हिस्सा) जो निर्माण हुआ है, उसे ही हम रहने दें, उसमें फिर भावना करने की क्या जरूरत है? लोगों से पाप होतें रुक जायें इसलिए मैं यह समझाना चाहता हूँ।
४) यदि समझें तो, यह एक वाक्य में बड़ा सार समाया है। मुझसे ज्ञान प्राप्त करने की ज़रूरत है ऐसा नहीं है, ज्ञान नहीं लिया हो पर इतना उसकी समझ में आ जाना चाहिए कि यह सब हिसाब (अपने भाग्य) के अनुसार ही है, हिसाब के बाहर कुछ नहीं होता।
५) इसका तात्पर्य यह है कि पालन कर सकें तो संपूर्ण नीति का पालन कीजिए और ऐसा पालन नहीं हो सकें तो निश्चय कीजिए कि दिन में तीन बार तो मुझे नीतिपालन करना ही है, या फिर नियम में रहकर अनीति करें तो वह भी नीति है। जो आदमी नियम में रहकर अनीति करता है उसे मैं नीति कहता हूँ। भगवान के प्रतिनिधि के तौर पर, वीतरागों के प्रतिनिधि के तौर पर मैं कहता हूँ कि अनीति भी नियम में रहकर करें, वह नियम ही तुम्हें मोक्ष में ले जायेगा।
Book name: आप्तवाणी 1 (Page #100 - Paragraph #4 & Page #101 - Paragraph #1 to #5)
Q. मुझे मेरे व्यवसाय का विस्तार करना चाहिए?
A. प्रश्नकर्ता: अब धंधा कितना बढ़ाना चाहिए? दादाश्री: धंधा उतना बढ़ायें कि चैन से नींद आये, जब हम... Read More
Q. क्या मुझे पैसे उधार देने चाहिए?
A. प्रश्नकर्ता: किसी मनुष्य को हमने पैसे दिये हो और वह नहीं लौटाता हो तो उस समय हमें वापस लेने का... Read More
Q. व्यापार में ट्रिक्स-क्या मुझे ऐसा करना चाहिए?
A. लक्ष्मी की कमी क्यों है? चोरियों से। जहाँ मन-वचन-काया से चोरी नहीं होगी, वहाँ लक्ष्मीजी की मेहर... Read More
Q. नुकसान के वक्त कैसे बर्तना चाहिए?
A. प्रश्नकर्ता : धंधे में भारी घाटा हुआ है तो क्या करुँ? धंधा बंद कर दूँ कि दूसरा धंधा करुँ? कज़र् बहुत... Read More
A. प्रश्नकर्ता : मनुष्य कर्ज छोड़कर मर जाये तो क्या होगा? दादाश्री : चाहे कर्ज अदा किये बिना मर जाये,... Read More
Q. मंदी से कैसे निपटे? पैसों का स्वभाव कैसा है?
A. प्रश्नकर्ता : जीवन में आर्थिक परिस्थिति कमज़ोर हो तब क्या करना? दादाश्री : एक साल बारिश नहीं होने... Read More
Q. ग़ैरकानूनी पैसे का क्या असर होता है?
A. मुंबई में एक उच्च संस्कारी परिवार की बहन से मैंने पूछा, 'घर में क्लेश तो नहीं होता न?' तब वह बहन... Read More
Q. व्यावसायिक नैतिकता क्या है?
A. प्रश्नकर्ता : आत्मा की प्रगति के लिए क्या करते रहना चाहिए? दादाश्री : उसे प्रामाणिकता की निष्ठा... Read More
A. जो चीज़ प्रिय हो गई हो उसी में मूर्र्छित रहना, उसका नाम लोभ। वह चीज़ प्राप्त होने पर भी संतोष नहीं... Read More
subscribe your email for our latest news and events