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क्रोध अर्थात् क्या?

क्रोध अर्थात् प्रकट अग्नि

क्रोध यानि खुद अपने घर को माचिस से जलाना, जिसमें पहले खुद जलते हैं, फिर दूसरों को जलाते हैं। जैसे अगर किसी खेत में सूखे घास के बड़े-बड़े ढेर इकट्ठा किए हों और फिर उसमें एक जलती हुई माचिस की तीली डाल दें, तो क्या होगा? तेज आग के साथ सारा घास जलने लगेगा और आस-पास की चीज़ों को भी जला देगा। इसी तरह अपने घास से भरे हुए घर में माचिस डालना, उसे ही क्रोध कहते हैं। पहले खुद जलते हैं, फिर पड़ोसी को भी जलाते हैं।

क्रोध वह निर्बलता

कुछ लोग अगर सुबह चाय ठंडी हो तो गुस्सा करते हैं और टेबल पटकते हैं। कुछ लोग मनपसंद भोजन न मिलने पर या भोजन ठीक से न बना होने पर क्लेश कर देते हैं और तोड़फोड़ कर देते हैं। कुछ लोग मनचाही वस्तु ना मिलने पर घर में क्लेश कर देते हैं तो कुछ लोग बड़ा नुकसान हो जाने पर क्रोध कर देते हैं। अधिकतर अपनी इच्छा के विरुद्ध कुछ हो तब व्यक्ति क्रोधित हो जाता है। इसका मतलब यह है कि बाहरी परिस्थितियाँ क्रोध नहीं करवातीं, बल्कि हमारे अंदर के कषाय हमें क्रोध करवाते हैं। इसलिए क्रोध हमारी कमजोरी है। जो लोग बात-बात पर क्रोधित हो जाते हैं, उनका दूसरों पर प्रभाव जीरो हो जाता है।

क्रोध की कमजोरी के कारण व्यक्ति का शरीर भले ही ठीक लगे, लेकिन मानसिक रूप से वह कमजोर हो जाता है, स्थिरता टूट जाती है और सहनशीलता घटने लगती है।

क्रोध का स्वरूप

क्रोध वे उग्र परमाणु हैं। जैसे अगर अनार के अंदर बारूद भरा हुआ हो, तो वह फूटता है तब तपिश लगती है। फिर जब अंदर का सारा बारूद समाप्त हो जाता है, तब अनार अपने आप शांत हो जाता है। इसी तरह क्रोध का भी है।

क्रोध दो प्रकार के होते हैं। एक क्रोध वह, जिसे मोड़ा जा सके - निवार्य। यानी, किसी पर क्रोध आया हो तो उसे अंदर ही अंदर मोड़ सकें और उसे शांत कर सकें, उसे काबू में कर सकें ऐसा क्रोध। जब मनुष्य इस स्टेज पर पहुँचता है, तब उसका व्यवहार बहुत सुंदर हो जाता है!

दूसरे प्रकार का क्रोध वह है, जिसे मोड़ा ना जा सके - अनिवार्य। बहुत प्रयास करने के बावजूद, एक बार सुलगाने के बाद अनार फूटे बिना रहेगा ही नहीं! उसी तरह से जिसे मोड़ा ना जा सके वह अनिवार्य क्रोध होता है। इस प्रकार का क्रोध न सिर्फ़ अपना नुकसान करता है, बल्कि सामनेवाले का भी भयंकर नुकसान करता है!

परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं, "हम उग्रता को क्रोध नहीं कहते, जिस क्रोध में तंत रहे, वही क्रोध कहलाता है। क्रोध तो कब कहलाएगा कि जब भीतर जलन हो। जलन होने से ज्वाला भड़कती रहती है और दूसरों तक भी उसका असर पहुँचता है। वह कुढ़न कहलाती है और अजंपा में खुद अकेला अंदर ही अंदर जलता रहता है, लेकिन तंत तो दोनों में ही रहता है। जबकि उग्रता अलग चीज़ है।"

तांता रहे उसी का नाम क्रोध!

जिस क्रोध में तांता हो, वही क्रोध कहलाता है। उदाहरण के तौर पर, यदि पति-पत्नी के बीच रात में झगड़ा हुआ हो, और ज़बरदस्त क्रोध भड़क उठा हो, दोनों पूरी रात जागते रहें हों। फिर सुबह पत्नी चाय लेकर आती है और चाय के कप को हल्का सा पटककर टेबल के ऊपर रखती है, तब पति समझ जाता है कि अभी भी उसमें तांता है! इसका मतलब यह है कि कल जो झगड़ा हुआ था, उसका तंत अभी भी चालू है। इसे ही क्रोध कहते हैं। बिगड़े हुए चेहरे से यह समझ में आ जाता है कि क्रोध का तांता अभी भी है! फिर तांता तो कितना भी पुराना हो सकता है। बहुत से लोगों को तो पूरे जीवन का तांता होता है! जैसे अगर बाप और बेटे के बीच झगड़ा हो गया तो, बाप कई सालों तक अपने बेटे का मुँह नहीं देखता और बेटा, बाप का मुँह नहीं देखता!

पंद्रह साल पहले अगर किसी व्यक्ति ने हमारा अपमान कर दिया हो और पंद्रह साल तक हम उस व्यक्ति से ना मिले हों लेकिन आज अगर उस व्यक्ति से हमारी मुलाकात हो जाए, वह सामने आ जाए, तो मिलते ही, हमें पंद्रह साल पहले की सारी बातें याद आ जाएँगी, वह तांता कहलाता है। अच्छे-अच्छों का तांता नहीं जाता है। एक बार अगर आपने किसी का कुछ मज़ाक उड़ाया हो, तो वह व्यक्ति पंद्रह-पंद्रह दिनों तक आपके साथ बात नहीं करेगा, वह तांता!

क्रोध मान का गुरखा

मनुष्यों में मुख्य रूप से क्रोध-मान-माया-लोभ यह चार कषाय काम करते हैं। इनमें क्रोध और माया क्रमशः मान और लोभ के गुरखे की तरह होते हैं। क्रोध कषाय वह मान का गुरखा होता है यानी कि जब मान कषाय के ऊपर आँच आए तब व्यक्ति क्रोध करके उसका बचाव कर देता है।

उदाहरण के तौर पर, यदि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अपमानजनक शब्दों में कहे कि, "तुम नॉनसेंस हो!" तो दूसरा व्यक्ति गुस्से में आकर पलटकर जवाब देता है, "तुम मुझे नॉनसेंस कहने वाले कौन होते हो? तुम्हारे पास भी सेंस कहाँ है?" इस तरह, जब अपमान हो तब तुरंत सामने क्रोध कर देना वही क्रोध से मान की रक्षा करना कहलाता है।

अक्सर जब हमारी अपेक्षा से कम मान हमें मिलता है, मान नहीं मिलता, अपमान मिलता है, या कोई हमारे कहे अनुसार काम नहीं करता तब हमें अपमान लगता है और हमें क्रोध आ जाता है। इन सभी परिस्थितियों में मान कषाय की रक्षा क्रोध से होती है।

क्रोध और गुस्से में अंतर!

वैसे देखें तो गुस्सा और क्रोध दोनों समानार्थी शब्द हैं, लेकिन परम् पूज्य दादा भगवान क्रोध और गुस्से के बीच का सूक्ष्म भेद बता रहें हैं।

प्रश्नकर्ता: दादा जी, गुस्से और क्रोध में क्या फर्क है?

दादाश्री: क्रोध उसे कहेंगे, जो अहंकार सहित है। जब गुस्सा और अहंकार दोनों एक साथ हों, तब क्रोध कहलाता है। बाप बेटे पर गुस्सा करे तो वह क्रोध नहीं कहलाता। उस क्रोध में अहंकार नहीं होता इसलिए वह गुस्सा कहलाता है।

ज्यादातर सांसार में अज्ञान अवस्था में होने वाले क्रोध में अहंकार मिला हुआ ही होता है। उसमें हिंसक भावना होती है, तांता होता है और खुद भी जलतें हैं और दूसरों को जलाते हैं। लेकिन आत्मज्ञान के बाद होने वाला क्रोध मुर्दे जैसा होता है। उसमें हिंसक भावना नहीं होती। वह क्रोध परिणामस्वरूप होता है और इफ़ेक्ट देकर चला जाता है।

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