परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि बाहर भगवान ढूँढने जाओगे तो वे मिलेंगे नहीं। इसलिए मनुष्यों की सेवा करो। क्योंकि मनुष्य में भगवान विराजमान हैं।
बुजुर्गों की सेवा करने से हमारी भौतिक उन्नति तो होती ही है, बल्कि साथ-साथ में अध्यात्म में भी ऊँचे आते हैं। परम पूज्य दादाश्री कहते हैं, "बुज़ुर्गों की सेवा करने से अपना यह विज्ञान विकसित होता है। कहीं मूर्तियों की सेवा होती है? मूर्तियों के क्या पैर दुखते हैं? सेवा तो अभिभावक हों, बुज़ुर्ग या गुरु हों, उनकी करनी होती है।“
बुज़ुर्गों की सेवा का अर्थ है अपने माँ-बाप, सास-ससुर, दादा-दादी या अन्य किसी भी बुज़ुर्ग जिनके साथ हम रहते हों उनकी सेवा। कई बच्चे बचपन में माता-पिता के साथ नहीं, बल्कि मामा-मामी या बुआ-फूफा के घर रहते हैं तो उनकी सेवा भी बुजुर्गों की सेवा ही कहलाती है।
हम भगवान का नाम लें, माला फेरें, जप, तप, उपवास करें, उसे धर्म कहते हैं। लेकिन बुजुर्गों में जीवित भगवान विराजमान हैं। जो भी शिक्षा प्राप्त की या धर्म के बारे में सीखा, उसका उपयोग बुजुर्गों को कैसे संभालें और उनकी किस तरह से सेवा करें इसके लिए करना चाहिए।
बुज़ुर्गों का कोई काम हो तो उसमें मदद करें, पाँव दुखते हों तो दबा दें, शरीर ही नहीं, किसी का मन दुःखी हो तो भी उन्हें राहत मिले, आनंद मिले ऐसा व्यवहार करें तो यह भी सेवा ही कहलाती है। बुज़ुर्गों को बुढ़ापे में बहुत सी तकलीफें होती हैं। उनकी वेदना को, तकलीफों को समझें और उसे मिटाने का प्रयत्न करें, तो उन्हें बहुत संतोष मिलता है और उनके दिल को ठंडक मिलती है।
आजकल बेटा बड़ा होता है और शादी करके बहू घर में लाता है, फिर सास-बहू के बीच रोजमर्रा की छोटी-बड़ी तकरारें शुरू होते ही, बेटा और बहू अलग घर बसा लेते हैं। जब बुज़ुर्ग माँ-बाप को मदद की ज़रूरत पड़ती है, तब पीछे मुड़कर भी नहीं देखते। बाद में जब माँ-बाप बूढ़े हो जाते हैं, तब उनकी सेवा करने की बात आती है तो मन बिगाड़कर, तिरस्कृत करके घर में रखते हैं। वास्तव में, तो विवाह के बाद बेटा और बहू दोनों माँ-बाप के साथ रहते हों, तो घर में क्लेश टालना चाहिए। माँ-बाप और सास-ससुर को दुःख न हो ऐसे एडजस्टमेंट लेने चाहिए। जिन्हें शांति चाहिए, उन्हें अपनी पकड़ों को छोड़कर रहना चाहिए।
कई बार बुज़ुर्गों की सेवा करने में अपने मौज-शौक को एक तरफ़ रखना पड़ता है। उस समय “मैं बाहर खाने-पीने के लिए नहीं जा सकता। घूमने-फिरने का समय नहीं मिलता, मुझे मेरे लिए समय नहीं मिलता।” ऐसे मन नहीं खराब होने देना चाहिए। विदेश में रहने वाले परिवारों में तो साल में एकाध दिन बुज़ुर्गों को फोन से शुभकामनाएँ भेजते हैं। इसके बजाय, यदि समय निकालकर, उनके पास जाकर प्रेम से व्यवहार करें, तो सामने वाले पर भी दिल की इस भावना का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है।
माता-पिता, सास-ससुर या बुज़ुर्गों को दुःख देते हैं, तो हमारा ही संसार बिगड़ता है। इतना ही नहीं, धर्म और आध्यात्म की प्रगति में भी अवरोध आते हैं।
परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं कि इस काल में सबसे ज्यादा दुःखी हैं तो वे साठ-पैंसठ वर्ष की उम्र के बुज़ुर्ग वृद्ध हैं। वृद्धों की जो व्यथा है, यातना है वह भयंकर यातना होती है। लेकिन वे इसे किससे कहें? न किसी से कह सकते हैं, न सह सकते हैं, न जी सकते हैं, न मर सकते हैं ऐसी उनकी परिस्थिति होती है।
जब बुढ़ापा आता है तब अपनी हीं संतानें माता-पिता की देखभाल नहीं कर पाते। संतानें नये ज़माने के अनुसार रहना चाहते हैं और माँ-बाप पुराने ज़माने के अनुसार। दोनों की प्रकृति अलग-अलग होने से रोज़ छोटे-मोटे टकराव होते रहते हैं। जनरेशन गैप के कारण घर्षण उत्पन्न होता है।
इसमें भी जब विवाह करके बेटा और बहू घर में साथ रहते हैं। तब माँ-बाप और बेटे के बीच का राग द्वेष में बदलने लगता है। एक-दूसरे के प्रति अपेक्षाएँ, रहन-सहन के अंतर, एक-दूसरे के व्यू पॉइंट को समझने की असमर्थता और रोज़-रोज़ बंधने वाले अभिप्रायों के कारण संबंधों में कड़वाहट पैदा हो जाती है। संतानें माँ-बाप के दोष देखने लगती हैं, जिससे माँ-बाप को अत्यंत पीड़ा होती है। उन्हें बार-बार याद आता है कि हमने सालों तक बच्चों की इतनी देखभाल की और अब हम उन पर बोझ बन गए! माँ-बाप और बच्चों के बीच का प्रेम टूट जाता है, भावनाएँ सूख जाती हैं और माँ-बाप को बहुत दुःख होता है।
जब माता-पिता का बुढ़ापा आता है, तब उनकी सेवा करने में संतानों को बोरियत लगती है। इतने वर्षों तक उनके दोष देखने के कारण वे प्रेम से सेवा नहीं कर पाते। इसकी भी माँ-बाप को बहुत वेदना होती है। कई बार तो पढ़े-लिखे बेटे और बहु, माँ-बाप को अपने पोते-पोतियों के साथ खेलने भी नहीं देते। जिन्होंने अपनी संतानों को इतना बड़ा करके उनका विवाह करवाया उन्हें ही "आपको नहीं आता, आप बिगाड़ देंगे।" कहकर तिरस्कार कर देते हैं। इन सबके कारण माँ-बाप मानसिक यातनाओं से दुःखी होते हैं। घर से सुख और शांति चली जाती है। बेटा अपनी पत्नी पर अधिक निर्भर होने लगता है इसलिए माता-पिता के बीच दूरी बढ़ती जाती है। अंततः संतानों को अपनी स्वतंत्रता चाहिए होती है इसलिए वे अलग घर बसा लेते हैं। कुछ निष्ठुर संतान तो अपने माँ-बाप को ही घर से निकाल देते हैं या वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं।
जैसे-जैसे माँ-बाप की उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे उनके शारीरिक कष्ट और लाचारियाँ भी बढ़ती जाती हैं। उन्हें रह-रहकर याद आता है कि जब उनका समय आया, तब संतानें उनकी ज़िम्मेदारियाँ नहीं निभा रहीं हैं। उस समय वे बहुत दुःखी होते हैं। माँ-बाप को होने वाली इस वेदना की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी संतानों पर आती है।
जिन माँ-बाप को पैसों की तकलीफ होती हैं, वे असहनीय लाचारी महसूस करते हैं। जबकि कुछ के पास धन, संपत्ति सब कुछ होता है लेकिन उनकी संतानें उनके पास आकर बैठती नहीं, समय नहीं देतीं, दिल हल्का करने के लिए उनके पास कोई नहीं है यह सोचकर वे बहुत दुःखी होते हैं।
परम पूज्य दादा भगवान वृद्धों की इस व्यथा को आत्मज्ञान में देख सकते थे। उनकी बहुत भावना थी कि बड़े बुज़ुर्ग के लिए रहने की व्यवस्था होनी चाहिए। यह मंदिर के नज़दीक हो, तो वे चलकर जा सकते हैं। साठ-पैंसठ साल के वृद्ध वहाँ निवास करें। साथ ही साथ, उन्हें आत्मज्ञान दे दिया जाए तो उन्हें शांति हो जाए। उस स्थान को वृद्धाश्रम के बजाय, कोई नया नाम दिया जाए। वहाँ आकर वे दर्शन करें, भक्ति करें, एक्टिविटीज में भाग लें जिससे उनका शेष जीवन सुख और शांतिपूर्ण गुजरे। पूज्य नीरू माँ ने परम पूज्य दादाश्री की इस भावना को साकार करते हुए "निरांत" की स्थापना की, जिसमें बुज़ुर्गों को सभी प्रकार की शारीरिक, मानसिक, धार्मिक और स्वास्थ्य से संबंधित सुविधाएँ मिलती हैं। वहाँ दैनिक सत्संग, भक्ति, सुबह और शाम भगवान की आरती और एक्टिविटीज में उनका समय आनंदपूर्वक व्यतीत होता है।
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