प्रश्नकर्ता : पर खुद की सेवा करने का सूझना चाहिए न?
दादाश्री : वह सूझना आसान नहीं है।
प्रश्नकर्ता : वह कैसे करें?
दादाश्री : वह तो खुद की सेवा करते हों, ऐसे ज्ञानी पुरुष से पूछना कि साहिब, आप औरों की सेवा करते हैं या खुद की? तब साहिब कहें कि, 'हम खुद की करते हैं।' तब हम उनसे कहें, 'मुझे ऐसा रास्ता दिखाइए!'
प्रश्नकर्ता : खुद की सेवा के लक्षण कौन से हैं?
दादाश्री : 'खुद की सेवा' अर्थात् किसी को दुःख न दे, वह सबसे पहला लक्षण। उसमें सभी चीज़ें आ जाती हैं। उसमें वह अब्रह्मचर्य का भी सेवन नहीं करता। अब्रह्मचर्य का सेवन करना मतलब किसी को दुःख देने के समान है। अगर ऐसा मानो कि राज़ी-खुशी से अब्रह्मचर्य हुआ हो, तब भी उसमें कितने जीव मर जाते हैं! इसलिए वह दुःख देने के समान है। इसलिए उससे सेवा ही बंद हो जाती है। फिर झूठ नहीं बोलते, चोरी नहीं करते, हिंसा नहीं करते, धन जमा नहीं करते। परिग्रह करना, पैसे इकट्ठे करना वह हिंसा ही है। इसलिए दूसरों को दुःख देता है, इसमें सब आ जाता है।
प्रश्नकर्ता : खुद की सेवा के दूसरे लक्षण कौन-कौन से हैं? खुद की सेवा कर रहा है, ऐसा कब कहलाता है?
दादाश्री : 'खुद की सेवा' करनेवाले को भले ही इस संसार के सारे लोग दुःख दें, पर वह किसी को भी दुःख नहीं देता। दुःख तो देता ही नहीं, पर बुरे भाव भी नहीं करता कि तेरा बुरा हो! 'तेरा भला हो' ऐसे कहता है।
हाँ, फिर भी सामनेवाला बोले तो हर्ज नहीं है। सामनेवाला बोले कि आप नालायक हो, बदमाश हो, आप दुःख देते हो, उसका हमें हर्ज नहीं। हम क्या करते हैं, यही देखना है। सामनेवाला तो रेडियो की तरह बोलता ही रहेगा, जैसे रेडियो बज रहा हो वैसा!
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