प्रश्नकर्ता : मोक्षमार्ग, समाजसेवा के मार्ग से बढ़कर कैसे है? यह ज़रा समझाइए।
दादाश्री : समाज सेवक से हम पूछें कि आप कौन हो? तब कहें, मैं समाजसेवक हूँ। क्या कहता है? यही कहता है न या दूसरा कुछ कहता है?
प्रश्नकर्ता : यही कहता है।
दादाश्री : यानी 'मैं समाज सेवक हूँ', बोलना, वह इगोइज़म है और इस व्यक्ति से कहूँ कि, 'आप कौन है?' तब कहेंगे, 'बाहर पहचान के लिए चन्दूभाई और वास्तव में तो मैं शुद्धात्मा हूँ।' तो वह इगोइज़म बिना का है, विदाउट इगोइज़म।
समाजसेवक का इगो (अहंकार) अच्छे कार्य के लिए है, पर है इगो। बुरे कार्य के लिए इगो हो, तब 'राक्षस' कहलाता है। अच्छे कार्य के लिए इगो हो, तब देव कहलाता है। इगो यानी इगो। इगो यानी भटकते रहना और इगो खतम हो गया। तो फिर यहीं मोक्ष हो जाए।
'मैं कौन हूँ'जानना,वह धर्म
प्रश्नकर्ता : हर एक जीव को क्या करना चाहिए? उसका धर्म क्या है?
दादाश्री : जो कर रहा है, वह उसका ही धर्म है। पर हम कहते हैं कि मेरा धर्म, इतना ही। जिसका हम इगोइज़म करते हैं कि यह मैंने किया। इसलिए हमें अब क्या करना चाहिए कि 'मैं कौन हूँ' इतना जानना, उसके लिए प्रयत्न करना, तो सारे पज़ल सॉल्व हो जाएँ। फिर पज़ल खड़ा नहीं होगा और पज़ल खड़ा नहीं हो, तो स्वतंत्र होने लगें।
Book Name : सेवा परोपकार (Page # 26 Paragraph #4,#5, & #6 , Page # 27 Paragraph #1 & #2)
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