आध्यात्मिक कोटेशन "भावना" पर

आप यदि सही हो तो दुनिया में कोई आपका नाम देनेवाला नहीं है। यदि आप जगत् में किसी को दुःख नहीं देते हो, किसी को दुःख देने की आपकी भावना नहीं है, तो आपको कोई दुःख दे सके ऐसा नहीं है।

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किसी के घर गए हों और हमें उसकी पत्नी अच्छा-अच्छा भोजन करवाए तो उसका उपकार मानना चाहिए, लेकिन ऐसी भावना नहीं करनी चाहिए कि यह स्त्री मेरे साथ आए तो अच्छा। खाने-पीने की चीज़ों के साथ ऐसे भाव कर लेते हैं इसलिए ऐसी बलाएँ लिपट जाती हैं। इसलिए भगवान ने कहा है कि, ‘मौज करना लेकिन मौजी मत बनना, शौक रखना मगर शौकीन मत बनना।’

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जीवन में जल्दी मरने की भावना करना, वह भी आर्तध्यान और रौद्रध्यान है और नहीं मरने की भावना करना, वह भी आर्तध्यान और रौद्रध्यान है। जब स्टेशन आए तब उतर पड़ना। मरने की भी नहीं और न मरने की भी भावना नहीं रखनी चाहिए।

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घाटा हुआ हो तब भी सामनेवाले को बता देनी चाहिए। ताकि सामनेवाला भावना करे, जिससे परमाणु खत्म हो जाएँ और खुद हलका हो जाए। अकेले अंदर ही अंदर उलझता रहे तो और भी ज़्यादा बोझा लगेगा!

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‘दादा’ को इतना यश क्यों मिलता है? मैंने कुछ भी नहीं किया हो, तब भी लोग आकर मुझ से कह जाते हैं कि ‘दादा, आपकी वजह से ही मेरा यह सारा काम हुआ है!’ मैं मना करूँ फिर भी यश देकर जाते हैं। यह यशनाम कर्म क्या है? भावना का फल है। भावना क्या थी? ‘इस जगत् में किसी के लिए कोई भी काम करो, खुद को लुटा दो, ऑब्लाइज़ (उपकार) करो। रुपए नहीं हों तो किसी के लिए चक्कर लगाना पड़े तो वह भी करो’

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मूर्तियाँ क्यों रखी गई हैं? उनके पीछे क्या भावना है? ‘‘साहब, आप सनातन सुख वाले हैं और मैं तो ‘टेम्परेरी’ सुख वाला हूँ। मुझे भी सनातन सुख पाने की इच्छा है।’’ भगवान सनातन सुख वाले हैं, तभी तो देखो न, मूर्ति में रहने के बावजूद भी, हम से ज़्यादा सुंदर दिखाई देते हैं। मानो! देखते ही रहें!

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भावना किस तरह की हो रही है, उस पर से हमें हिसाब लगाना है। बुरी भावना होती रहे तो समझ जाना कि खराब समय आया है। अत: बहुत हुआ तो खुद अपने आपको समेट लेना चाहिए। निष्पक्षपातीपन का भाव रखा जाए तो ऐसा हो सकेगा। इसमें भी अपने हाथ में संपूर्ण सत्ता तो है ही नहीं।

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