आध्यात्मिक कोटेशन "शुद्ध प्रेम" पर

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मैं किसी से लड़ना नहीं चाहता, मेरे पास तो सिर्फ प्रेम का ही हथियार है। मैं प्रेम से जगत् को जीतना चाहता हूँ। जगत् जिसे प्रेम समझता है वह तो लौकिक प्रेम है। प्रेम तो वह है कि अगर आप मुझे गालियाँ दो तो मैं ‘डिप्रेस’ (हतोत्साह) नहीं होऊँ और फूलमाला चढ़ाने पर मैं ‘एलिवेट’ (प्रोत्साहित) नहीं होऊँ! सच्चे प्रेम में तो फर्क ही नहीं पड़ता। इस देह के भाव में फर्क पड़ता है लेकिन ‘शुद्ध प्रेम’ में नहीं।

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‘वीतराग भगवान’ ने कहा है कि जिसे पाप-पुण्य, दोनों के प्रति द्वेष या प्रेम नहीं है, वे ‘वीतराग’ हैं!

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व्यवहार में ‘व्यवहार’ की तरह रहो। व्यवहार के प्रेम में यदि कमी लगे तो वहाँ से खिसक जाना।

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पूरा जगत् अनिवार्यता से करता है, उसमें उसे डाँटे कि, ‘ऐसा क्यों कर रहे हो?’ तो वह नासमझी ही है। उसे डाँटने पर वह ज़्यादा करेगा, उसे प्रेम से समझाओ। प्रेम से सभी रोग मिट जाते हैं। ‘शुद्ध प्रेम’ ‘ज्ञानीपुरुष’ से या फिर उनके ‘फॉलोअर्स’ से मिलता है!

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भगवान के पास दो चीज़ों की ज़रूरत है: ‘शुद्ध प्रेम’ और ‘सच्चा न्याय’ अन्य सभी जगह सापेक्ष न्याय है। जहाँ ‘शुद्ध प्रेम’ और ‘सच्चा न्याय’ है, वहाँ भगवान की कृपा उतरती है!

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‘शुद्ध प्रेम’ यानी जो बढ़े नहीं, घटे नहीं। जो गालियाँ देने से घट नहीं जाता और फूल चढ़ाने से बढ़ नहीं जाता, वह है ‘शुद्ध प्रेम’। ‘शुद्ध प्रेम’, वह ‘परमात्म प्रेम’ कहलाता है। वही सच्चा धर्म है!

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अंतिम स्वरूप, वह प्रेमस्वरूप है! यह प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम वहाँ नहीं चलता। भगवान का तो ‘शुद्ध प्रेम’ होता है। जो बढ़े-घटे वह आसक्ति कहलाती है। ‘शुद्ध प्रेम’ में बढऩा-घटना नहीं होता।

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