आत्मा खुद ही परमात्मा है। वह तप स्वरूप नहीं है, जप स्वरूप भी नहीं है। बाकी की ये सारी कल्पनाएँ हैं। ‘स्वरूप का भान’ होने के बाद ही ये अन्य सारे संयोग बंद हो जाते हैं।
परम पूज्य दादा भगवान(1) धर्माधर्म आत्मा - अधर्म को धक्का लगाना और धर्म का संग्रह करना, उससे सांसारिक फल मिलता है। (2) ज्ञानघन आत्मा - यानी कि ‘रियल और रिलेटिव’ का ज्ञान हो। (3) विज्ञानघन आत्मा - यानी कि ‘एब्सल्यूट’ (केवल)। हम ‘विज्ञानघन आत्मा’ में बैठे हुए हैं।
परम पूज्य दादा भगवानसंसार में अनेक तरह के उपादान हैं, लेकिन सब से अंतिम उपादान, मोक्ष का उपादान, खुद का स्वरूप, शुद्धात्मा है!
परम पूज्य दादा भगवानचैतन्य अविनाशी है और अचेतन भी अविनाशी है, लेकिन चैतन्य को तत्त्व स्वरूप से जानना है और तत्त्व स्वरूप से ही अविनाशीपन को समझना है!
परम पूज्य दादा भगवानविनाशी चीज़ों की मुद्दत होती है, अविनाशी वस्तु की मुद्दत नहीं होती। विनाशी को विनाशी समझने वाला ‘अविनाशी’ होता है!
परम पूज्य दादा भगवानयदि पुद्गल से एकता रखी तो ‘हमें’ भी विनाशी होना पड़ेगा क्योंकि पुद्गल विनाशी है। ‘खुद’ यदि पुद्गल से जुदा रहे तो अविनाशी है, खुद के अमरत्व का पता चल जाता है। कर्तापन के भान की वजह से पुद्गल से एकता हो जाती है।
परम पूज्य दादा भगवानइस संसार में सिर्फ ‘ज्ञानी पुरुष’ ही ऐसे निमित्त हैं जो जड़ और चेतन को अलग कर सकते हैं!
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