Lord Shiva
"Pujya Deepakbhai offers a Gnani's understanding of the deeper spiritual meaning of "Shiva"."
शास्त्रों के अनुसार, भगवान शिव हिमालय की पहाड़ियों पर रहते हैं। पार्वती उनकी पत्नी हैं। गणेश और कार्तिक उनके बेटे हैं। यह उनका भौतिक परिचय है लेकिन जिन्हें वास्तव में, 'आत्म साक्षात्कार' हो जाता है, उनकी आंतरिक अवस्था को ही 'शिव' कहते है।
सही अर्थ में, जो भी 'कल्याण स्वरूप'(मोक्षस्वरूप) हो जाते हैं वे ही शिव कहलाते हैं। अतः शिव मोक्ष स्वरूप के प्रतीक हैं अर्थात ज्ञानी।
कहानी के अनुसार भगवान शिव समुद्र मंथन से निकला हुआ विष पी गए थे, विष के गले में रुक जाने की वजह से उनकी गर्दन नीली हो गई थी और इसीलिए उनका नाम नीलकंठ पड़ा। नीलकंठ शब्द का वास्तविक अर्थ है कि जो इस दुनिया से मिलने वाले अपमान रूपी विष को समता भाव से दूसरों को आशीर्वाद देते हुए निगल जाते हैं, वह शिव बन जाते हैं।
इसका मतलब यह हुआ कि यदि कोई आपका अपमान करे तो उस अपमान को आपको समताभाव से सहन कर लेना चाहिए और अपमान करने वाले व्यक्ति के लिए हमें भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि "हे भगवान इसे सही समझ दीजिए।" जिस दिन हम ऐसा करते हैं, तब हम भी एक दिन के लिए भगवान शिव बन जाते हैं। सभी आत्मज्ञानी जीवन भर ऐसा करते हैं इसीलिए वे 'कल्याण स्वरूप' कहे जाते हैं।
परम पूज्य दादा भगवान कहते हैं…
“आपको हर हाल में ज़हर पीना ही पड़ेगा। यह आपके कर्मों का हिसाब है। इसलिए विष का ग्लास आपके पास आएगा ही। तब आपको चुनना है कि उसे हँसते हुए पीना है या उदास चेहरे से, आपको उसे पीना तो पड़ेगा ही। अरे! यदि उसे आप किसी भी हाल में नहीं पीओगे तो लोग आपको बलपूर्वक पिलाएँगे। तो क्यों न आप उस व्यक्ति को आशीर्वाद देते हुए ख़ुशी ख़ुशी पी जाओ? इसके बिना आप नीलकंठ कैसे बन सकते हो?
वास्तव में जो लोग आकर आपको विष का ग्लास दे जाते हैं, वह आपको ऊपर की दशा में उठाकर ले जाते हैं। लेकिन यदि आप उदास चेहरे से पीओगे तो वह दशा नहीं आएगी। जब कि मुझे इस दुनिया ने बहुत सारे विष के ग्लास पिलाए हैं, मैंने उन्हें हँसते चेहरे से, उन्हें आशीर्वाद देते हुए पी लिया है और महादेव बन गया हूँ(भगवान शिव) !
जब कोई व्यक्ति आपको कुछ कड़वा पिलाता है, और आप उसे आशीर्वाद देते हुए पी जाते हो, तब एक ओर आपके अहंकार की शुद्धि होती है और आप उतने मुक्त होते जाते हो। और दूसरी ओर, दूसरा व्यक्ति जो आपको कड़वा रस पिलाता है, उसे भी पछतावा होता है। वह महसूस करता है कि 'उसे ऐसा कड़वा रस पिलाना, मेरी कमज़ोरी है, और वह व्यक्ति तो हँसते चेहरे से पी जाता है, इसलिए वह बहुत शक्तिशाली है।'
भगवान शिव की मूर्ति एक प्रतीक है आत्मा की पूजा करने के लिए। इसलिए हम "ॐ नमः शिवाय!” कहते हैं।
ज्ञानी कहते हैं, “यह वास्तविक स्थिति है। यदि आप शिव-दशा प्राप्त करना चाहते हो, आपको ख़ुद की पहचान करनी पड़ेगी अर्थात मैं कौन हूँ,” जब कि हम भगवान की मूर्तिपूजा में विश्वास करते हैं और हम प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना के द्वारा हम अपने रिलेटिव भाग(आत्मा के अलावा बाक़ी सब जिसे हम अपना समझते हैं) की प्रग्रति करते हैं, जिसके फल स्वरूप हमें भौतिक ख़ुशियाँ मिलेंगी अर्थात अच्छी पत्नी, अच्छे बच्चे, अच्छा धर्म आदि।
लेकिन जब हम अपनी आत्मा का साक्षात्कार कर लेंगे, तब अपने आप ही हमारा मोक्ष मार्ग शुरू हो जाएगा। और तब हमें बाहर की ओर का ऊँचा और ऊँचा रिलेटिव स्तर प्राप्त होगा और अंदर से हम मुक्ति प्राप्त करते जाएँगे।
इसलिए, अज्ञान दशा(जीव दशा) में, जब तक हम ख़ुद को शिव से अलग समझते हैं, तब तक हम 'ॐ नमः शिवाय' कहते हैं(मैं शिव को नमस्कार करता हूँ।) लेकिन आत्मसाक्षात्कार, के बाद हमें हमेशा जागृति रहती है कि आत्मा शरीर से अलग है, और तब हम अनुभव करते हैं 'शिवोहम, शिवोहम..(मैं शिव हूँ, मैं शिव हूँ)। मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ।' उसके बाद कोई भी अंतर नहीं रह जाता भगवान शिव और हमारे सच्चे स्वरूप में अर्थात आत्मा में।
परम पूज्य दादाश्री को १९५८ के जून महीने में आत्मसाक्षात्कार(आत्मा का स्पष्ट अनुभव) हुआ था। वे दूसरों को भी सिर्फ़ दो ही घंटे में 'आत्म साक्षात्कार' करवा सकते थे। पूज्य डॉ. नीरू माँ को १९६८ में परम पूज्य दादाश्री के द्वारा 'आत्म साक्षात्कार' प्राप्त हुआ था।
आप भी 'आत्म साक्षात्कार' प्राप्त कर सकते हो, पूज्य दीपकभाई के द्वारा दी जाने वाली 'ज्ञान विधि' में भाग लेकर। ज्ञान प्राप्त करके और पाँच आज्ञा का पालन करने से आप भी आत्यंतिक मोक्ष की ओर आगे बढ़ सकोगे।
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