आध्यात्मिक कोटेशन "आरोपित भाव" पर

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इस संसार में सब से बड़ा गुनाह ‘आरोपित भाव’ ही है।

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आरोपित भाव में स्थिर रहना, वह मद है। आरोपित भाव में रंजन करना, वह प्रमाद।

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प्रकृति अर्थात् वह जो आत्मा के अज्ञान भाव से उत्पन्न होती है। ‘मैं चंदूभाई हूँ’ वह आरोपित भाव है, वही प्रकृति है!

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आरोपित भाव वही अहंकार है। तुम्हें यदि सांसारिक सुख चाहिए तो उसका पॉज़िटिव उपयोग कर, उसमें ‘नेगेटिव’ मत डालना। तुझे यदि दु:ख ही चाहिए तो ‘नेगेटिव’ रखना और सुख-दु:ख का मिश्रण चाहिए तो दोनों साथ में रखना और तुझे यदि मोक्ष में  ही जाना हो तो आरोपित भाव से मुक्त हो जा। तेरे स्वभाव-भाव में आ जा! पूरा जगत इन तीन वाक्यों के आधार पर चल रहा है!

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कसी जीव को किंचित्मात्र भी दु:ख नहीं हो, खुद का ऐसा ‘अव्याबाध स्वरूप’ है। फिर भी खुद आरोपित भाव से ऐसा मानकर कि ‘साँप हूँ’, सामने वाले को काटे तो इंसान मर जाता है! देखो न, यह भी आश्चर्य है न! क्योंकि उसकी मान्यता है। जैसा मानता है वैसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है। ऐसा तय करे कि इसे मार ही देना है, तो अंदर वैसा ही ज़हर आ जाता है। लेकिन जैसा माने यदि वैसी शक्ति स्वतंत्र रूप से उतपन्न हो सकती तो तरह-तरह का काफी कुछ हो चुका होता, लेकिन बीच में ‘नेचर’ (कुदरत) है। इस शक्ति के सामने फिर ‘नेचुरली’ प्रतिकारक शक्ति उत्पन्न होगी ही। अत: प्रतिकार में खुद उलझ जाता है! वर्ना खुद की तो ग़ज़ब की शक्तियाँ हैं, अनंत शक्तियाँ हैं लेकिन शक्तियाँ व्यर्थ जा रही हैं!

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