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शुद्ध प्रेम का उदभव कैसे होता है?

अर्थात् जहाँ प्रेम न दिखे, वहाँ मोक्ष का मार्ग ही नहीं। हमें नहीं आए, बोलना भी नहीं आए, तब भी वह प्रेम रखे, तब ही सच्चा।

यानी एक प्रमाणिकता और दूसरा प्रेम कि जो प्रेम कम-ज़्यादा नहीं होता। इन दो जगह पर भगवान रहते हैं। क्योंकि जहाँ प्रेम है, निष्ठा है, पवित्रता है, वहाँ पर ही भगवान है।

सारा रिलेटिव डिपार्टमेन्ट पार कर जाए तब निरालंब होता है, तब प्रेम उत्पन्न होता है। 'ज्ञान' कहाँ सच्चा होता है? जहाँ प्रेम से काम लिया जाता हो वहाँ और प्रेम हो वहाँ लेन-देन नहीं होता। प्रेम हो वहाँ एकता होती है। जहाँ फीस होती है, वहाँ प्रेम नहीं होता। लोग फीस रखते हैं न? पाँच-दस रुपये? कि 'आना, आपको सुनना हो तो, यहाँ नौ रुपये फीस है' कहेंगे। यानी धंधा हो गया! वहाँ प्रेम नहीं होता। रुपये हों वहाँ प्रेम नहीं होता। दूसरा, जहाँ प्रेम वहाँ ट्रिक नहीं होती और जहाँ ट्रिक है वहाँ प्रेम नहीं होता।

जहाँ सो गए, वहीं का ही आग्रह हो जाता है। चटाई में सोता हो तो उसका आग्रह हो जाता है, और डनलप के गद्दे में सोता हो तो उसका आग्रह हो जाता है। चटाई पर सोने के आग्रहवाले को गद्दे में सुलाएँ तो उसे नींद नहीं आती। आग्रह ही विष है और निराग्रहता ही अमृत है। निराग्रहीपन जब तक उत्पन्न नहीं होता तब तक जगत् का प्रेम संपादन नहीं होता। शुद्ध प्रेम निराग्रहता से उत्पन्न होता है और शुद्ध प्रेम वही परमेश्वर है।

इसलिए प्रेमस्वरूप कब हुआ जाएगा? नियम-वियम न ढूंढो, तब। यदि नियम ढूंढोगे तो प्रेमस्वरूप नहीं हुआ जाएगा! 'क्यों देर से आए?' कहें वह प्रेमस्वरूप नहीं कहलाता और प्रेमस्वरूप हो जाओगे तब लोग आपका सुनेंगे। हाँ, आप आसक्तिवाले हो तो आपका कौन सुने? आपको पैसे चाहिए, आपको दूसरी स्त्रियाँ चाहिए, वह आसक्ति कहलाएगी न?! शिष्य इकट्ठे करना वह भी आसक्ति कहलाएगी न?

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