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ज्ञानी की निर्दोष दृष्टि।

आपके दोष भी हमें दिखते हैं, पर हमारी दृष्टि शुद्धात्मा की तरफ होती है, उदयकर्म की तरफ दृष्टि नहीं होती। हमें सबके दोषों का पता चल जाता है, पर उसका हम पर असर नहीं होता है, इसलिए तो कवि ने लिखा है कि,

'मा कदी खोड़ काढे नहीं,

दादाने य दोष कोईना देखाय नहीं।'

('माँ किसीके दोष नहीं निकालती है, दादा को भी किसीके दोष नहीं दिखते हैं।')

मुझे अभी कोई गालियाँ दे, फिर कहेगा, 'साहब मुझे मा़फ करो।' अरे भाई! हमें मा़फ करना नहीं होता है। मा़फी तो हमारे सहज गुण में ही होती है। सहज स्वभाव ही हमारा हो गया है कि मा़फी ही बक्शते हैं। तू चाहे जो करे, फिर भी मा़फी ही बक्शते हैं। ज्ञानी का वह स्वभाविक गुण बन जाता है। और वह आत्मा का गुण नहीं है, न ही देह का गुण है, वे व्यतिरेक गुण हैं सारे।

इन गुणों पर से हम नाप सकते हैं कि आत्मा उतने तक पहुँचा। फिर भी ये आत्मा के गुण नहीं है। आत्मा के खुद के गुण तो वहाँ ठेठ साथ में जाते हैं, वे सब गुण आत्मा के। और व्यवहार में यह हम कहते हैं, वे लक्षण हैं उसके। यदि किसीको धौल मारें और वह अपने सामने हँसे, तब हम जान जाते हैं कि इन्हें सहज क्षमा है। तब अपने को समझ में आता है कि बात ठीक है।

आपकी निर्बलता हम जानते हैं। और निर्बलता होती ही है। इसीलिए हमारी सहज क्षमा होती है। क्षमा देनी पड़ती नहीं है, मिल जाती है, सहज भाव से। सहज क्षमा गुण तो अंतिम दशा का गुण कहलाता है। हमें सहज क्षमा होती है। इतना ही नहीं पर आपके लिए हमें एक समान प्रेम रहता है। जो बढ़े-घटे वह प्रेम नहीं होता है, वह आसक्ति है। हमारा प्रेम बढ़ता-घटता नहीं है, वही शुद्ध प्रेम, परमात्म प्रेम है।

 

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