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क्या रिश्तों में सच्चा प्रेम होता है?

जगत् आसक्ति को प्रेम मानकर उलझता है। स्त्री को पति के साथ काम और पति को स्त्री के साथ काम, ये सब काम से ही खड़ा हुआ है। काम नहीं हो तो अंदर सभी चिल्लाते हैं, हल्ला करते हैं। संसार में एक मिनट भी अपना कोई हुआ ही नहीं है। अपना कोई होता नहीं है। वह तो जब अटके तब पता चले। एक घंटा बेटे को हम डाँटे तब पता चले कि बेटा अपना है या पराया है? दावा दायर करने के लिए भी तैयार हो जाता है। तब बाप भी क्या कहता है? 'मेरी अपनी कमाई है। तुझे एक पाई नहीं दूँगा' कहेगा। तब बेटा कहेगा, 'मैं आपको मार-ठोककर लूँगा।' इसमेंपोतापणुं(मैं हूँ और मेरा है-ऐसा आरोपण/मेरापन) होता होगा? एक ज्ञानी पुरुष ही अपने होते हैं।

बाकी, इसमें प्रेम जैसी वस्तु ही नहीं है। इस संसार में प्रेम मत ढूंढना। किसी जगह पर प्रेम होता नहीं। प्रेम तो ज्ञानी पुरुष के पास होता है। दूसरे सभी जगह तो प्रेम उतर जाता है और फिर लड़ाई-झगड़े होते हैं बाद में। लड़ाई-झगड़े होते हैं या नहीं होते? वह प्रेम नहीं कहलाता। वह आसक्ति है सारी। उसे अपने जगत् के लोग प्रेम कहते हैं। उल्टा ही बोलना वह धंधा! प्रेम का परिणाम, झगड़े नहीं होते। प्रेम उसीका नाम कि किसीका दोष न दिखे।

प्रेम में कभी भी सारी ज़िन्दगी में बेटे का दोष नहीं दिखता, पत्नी का दोष नहीं दिखता, उसका नाम प्रेम कहलाता है। प्रेम में दोष दिखते ही नहीं उसे और यह तो लोगों को कितने दोष दिखते हैं? 'तू ऐसी और तू वैसी!' अरे, प्रेम कहता था न? कहाँ गया प्रेम? मतलब, नहीं है यह प्रेम। जगत् में कहीं प्रेम होता होगा? प्रेम का एक बाल जगत् ने देखा नहीं है। यह तो आसक्ति है।

और जहाँ आसक्ति हो, वहाँ आक्षेप हुए बगैर रहते ही नहीं। वह आसक्ति का स्वभाव है। आसक्ति हो इसलिए आक्षेप हुआ ही करते हैं न कि, 'आप ऐसे हो और आप वैसे हो।' 'आप ऐसे और तू ऐसी' ऐसा नहीं बोलते, नहीं? आपके गाँव में वहाँ नहीं बोलते या बोलते हैं? बोलते हैं! उस आसक्ति के कारण। पर जहाँ प्रेम है, वहाँ दोष ही नहीं दिखते हैं।

संसार में इन झगड़ों के कारण ही आसक्ति होती है। इस संसार में झगड़ा तो आसक्ति का विटामिन है। झगड़ा नहीं हो तब तो वीतराग हुआ जाए।

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