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दोष किसका ? गुरु या शिष्य का ?

प्रश्नकर्ता : अभी तो गुरु पैसों के पीछे ही पड़े होते हैं।

दादाश्री : वह तो ये लोग भी ऐसे हैं न? लकड़ी टेढ़ी है, इसलिए यह आरी भी टेढ़ी आती है। यह लकड़ी ही सीधी नहीं है न! लोग टेढ़े चलते हैं इसलिए गुरु टेढे़ मिलते हैं। लोगों में क्या टेढ़ापन है? 'मेरे बेटे के घर पर बेटा चाहिए।' यानी लोग लालची हैं इसलिए ये लोग चढ़ बैठे हैं। अरे, वह क्या बेटे के वहाँ बेटा देनेवाला था? वह कहाँ से लानेवाला था? वह खुद बिना पत्नी और बच्चोंवाला है, वह कहाँ से लानेवाला था? किसी बेटेवाले से कह न! यह तो 'मेरे बेटे के घर बेटा हो जाए' इसलिए उसे गुरु बनाते हैं। यानी लोग लालची हैं, तब तक ये धूर्त चढ़ बैठे हैं। लालची हैं, इसलिए गुरु के पीछे पड़ते हैं। हमें लालच नहीं हो और तब गुरु बनाएँ तो सच्चा!

यह तो कपड़े बदलकर लोगों को भ्रमाते  हैं और लोग लालची हैं इसीलिए भ्रमित हो जाते हैं। लालची नहीं हो, तो कोई भी भ्रमित न हो! जिसे किसी भी प्रकार का लालच नहीं है, उसे भ्रमित होने की बारी नहीं आती।

प्रश्नकर्ता : परंतु आज तो गुरु के पास से भौतिक सुख माँगते हैं, मुक्ति कोई नहीं माँगता है।

दादाश्री : सब ओर भौतिक की ही बातें हैं न! मुक्ति की बात ही नहीं है। यह तो 'मेरे बेटे के घर बेटा हो जाए, या फिर मेरा व्यापार अच्छी तरह चले, मेरे बेटे को नौकरी मिल जाए, मुझे ऐसे आशीर्वाद दें, मेरा कल्याण करें' ऐसी अपार लालच हैं सभी। अरे, धर्म के लिए, मुक्ति के लिए आया है या यह सब चाहिए?

अपने में कहावत है न, 'गुरु लोभी, शिष्य लालची, दोनों खेलें दाँव।' ऐसा नहीं होना चाहिए। शिष्य लालची है, इसलिए गुरु उनसे कहेगा कि, 'तुम्हारा यह हो जाएगा, हमारी कृपा से ऐसा हो जाएगा, यह हो जाएगा।' वह लालच घुसा, वहाँ बरकत नहीं आती।

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